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वर्ष
स्वर्गस्थ सिंघीजीके कुछ संस्मरण [११३ (येही उनके यथावत् शब्द हैं ) मैंने कहा 'समय आने पर देखा जायगा।' उनके खयं स्फूरित, मुझ जैसेके प्रति अकारण नम्र शब्द, सुन कर मेरा चित्त अनेक लागणियोंसे भर गया । १९३० ई० के मार्चमें मैंने गुजरात विद्यापीठको छोड़ा। तब, चाहे जितने समय तक अपेक्षित, सब खर्च, एक एक सालका, एकसाथ पहिले ही से मंगा लेनेको मुझको सिंघीजीने कहा था। मैं इंप्रेजीका अपना अभ्यास कहीं बैठ कर एकाग्रताके साथ करना चाहता था पर इतनेमें महात्माजीकी दांडी कूचसे राष्ट्रमें जो हलचल पैदा हो गई उसमें मैं मी बम्बई वगैरहमें प्रचारके कार्यमें व्यस्त हो गया । उस लहरके कुछ शान्त होने पर मैंने अपना अभ्यास शुरू किया जो करीब दो-ढाई वर्ष चलता रहा । सिंधीजी उसमें अपेक्षित सहायता देनेके लिये सदा उत्सुकताके साथ मुझे लिखा करते थे। परन्तु मैं अपनी चित्तवृत्तिके अनुसार बहुत ही संकोचके साथ जब उनसे कुछ रकम मंगवाता तो वे मनमें, मेरे संकोचको देख कर कुछ खिन्न ही होते थे। बनारसमें हिंदुयुनिवर्सिटीमें जो जैन चेयरकी स्थापना, जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सके प्रयत्नसे की गई थी उसके संचालनके लिये कोई योग्य व्यक्ति मिल नहीं रहा था; अतः कॉन्फरन्सके कुछ अधिकारी मित्रोंने, कुछ समय तक, मुझको उस स्थानके संभालनेकी प्रेरणा की । बनारस यों ही मेरी परम प्रिय विद्याभूमि थी। मेरा चित्त उसके लिये आकृष्ट हो गया और उसमें शान्तिनिकेतनसे श्रीमुनिजीकी भी उत्साहजनक प्रेरणाका पुट मिल गया। सिंधीजीको यह खबर मिली तो उन्होंने मुझको तारसे बंबईमें सूचित किया था कि 'आर्थिक दृष्टिसे काशी जानेकी जरूरत नहीं। चाहे जितना और चाहे जहाँ रह कर अध्ययन कर सकते हो।' ऐसी नम्र और उदार वृत्ति मैंने मात्र मेरे प्रति ही नहीं देखी है । वे बड़े मनुष्यपरीक्षक थे । एक बार जिसे परीक्षापूर्वक चुनते थे उसके साथ उनका वैसा ही व्यवहार रहता था । मैंने देखा है कि मुनिश्री जिनविजयजीको अपनी परीक्षासे चुन कर 'सिंघी जैन सिरीझ'के सर्वेसर्वा बनानेके बाद उनके प्रति कितना नम्र और आदरशील उदार व्यवहार रहा है । वे मुझसे अनेकबार कहते थे कि 'मेरी सिरीझके लिये मुनिजी जैसे व्यक्तिका मिलना मेरा अहोभाग्य है ।' मुझसे कहते थे कि 'मुनिजी इतना अधिक काम क्यों करते हैं ? और तबीयत क्यों बिगाड़ते हैं ?. सहायक सुयोग्य आदमी रख लें । खर्चका तो कोई प्रश्न ही नहीं । उनकी शक्ति चिरकाल काम दे तो पैसा क्या चीज है ?'
३.१५.
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