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________________ वर्ष खर्गस्थ सिंघीजीके कुछ संस्मरण . [१०५ एक प्रभावशाली आचार्यके शिष्य थे। बाबूजी कल्पसूत्र सुननेको तो जाते न थे पर एक दिन साधुजीका दर्शन करने चले गये । तब साधुजीने कहा कि 'आप तो संबके मुखिया हैं, कल्पसूत्र तो जरूर सुनना चाहिए और उपाश्रयमें आना चाहिए।' इतने प्रथापालक होते हुए भी बाबूजीने जवाब दिया कि 'जिस ढंगसे घंटों तक कल्पसूत्र बांचा जाता है, उस ढंगसे सुननेमें मुझको तो कोई लाभ नहीं दिखता । जो प्रश्न हमारे मनके हैं, जो समाजके हैं, जो धर्मके हैं उनका तो कोई स्पर्श तक नहीं करता । और साधुमहाराज यह भी नहीं देखते कि कल्पसूत्रकी कौनसी बात बुद्धिग्राह्य है और कौनसी काल्पनिक । सुननेवाले अधिकतर नींद लेते हैं और बांचनेवाला बांचता जाता है । मैं तो अपने घरमें ही अपने आप कुछ योग्य खाध्याय कर लेता हूँ। यदि आप लोग समय और श्रोताओंको न पहचानेंगे तो कल्पसूत्रका स्थान घट जायगा । सिंघीजीकी यह स्पष्टोक्ति सुनकर साधुजी सम रह गये । पर्दूषणमें धर्मस्थानोंमें साधुजीके मुखसे प्रथानुसार कल्पसूत्र आदि सुननेका रिवाज जैन परंपरामें बहुत रूढ़ हो गया है । उसके स्थानमें धार्मिक, सामाजिक आदि जीवनस्पर्शी विषयोंके ऊपर चालू जमानेके अनुसार सुविद्वानोंके द्वारा व्याख्यान करानेकी नई प्रथा गुजरातमें शुरू हुई है, जो पर्युषण व्याख्यानमाला कहलाती है। सामान्यतया कट्टर जैन इस व्याख्यानमालाको धर्मनाशक समझते हैं। कलकत्ताके समझदार जैन युवकोंने अपने यहाँ भी इस व्याख्यानमालाका प्रारम्भ किया जिसमें स्थानिक और बाहरके सुप्रसिद्ध विद्वान् बुलाये जाते थे । नवयुवकोंके इस रूढ़िपरिवर्तनमें बाबूजीका हार्दिक सहयोग था । वे व्याख्यानश्रेणीमें नियमित जाते थे। १९४० ई०में उस प्रसंग पर मैं भी कलकत्ता गया था। वहाँ देखा तो बाबूजीके प्रभावशाली सहयोगके कारण सारा जैन समाज उस व्याख्यानश्रेणी में रस ले रहा था । यहाँ तककी एकदिन एक पुराने जैनसूरिने भी उस व्याख्यानमालामें एक व्याख्यान करके सहयोग दिया। जब १९३१ ई०में वे पालीताना गये तो मैं भी साथ था। सिंघीजी, माताजी आदि पालखीमें बैठ कर रोज पहाड़के ऊपर दर्शन-पूजा निमित्त जाते थे। मैं तो चलकर तलहट्टी तक जाता था । ऊपरसे उतरते समय तलहट्टीमें यात्रिओंके लिए नाश्ता-पानीका सुप्रबन्ध हमेशा रहता है। जब यात्री कुछ खाते पीते हैं तब ने बेचारे पालखी उठानेवाले अलग चुपचाप बैठे रहते हैं, जिनके कंधों पर चढ़ कर ३.१४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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