________________
९०] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय एक योजना प्रास्ताविक-मैंने अपने प्रारम्भिक जीवनमें ही अपने पुण्यश्लोक वर्गवासी पितृदेवसे जैन धर्म और जैन तत्त्वज्ञानके विषयमें कुछ शिक्षा पाई थी, जिससे मेरी अभिरुचि जैन दर्शन और जैन साहित्यके प्रति प्रथमसे ही रही है। उसीके फल स्वरूप तथा स्वर्गीय पूज्य पितृदेवकी पुण्य स्मृतिमें "श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला" की स्थापना हुई है, जो साहित्य रसिक इतिहास वेत्ता मुनिजी श्री जिनविजयजीके सुयोग्य प्रधान सम्पादकत्वमें करीब बारह वर्षसे प्रकाशित हो रही है। जिसमें जैन- साहित्य - पारावारसे उद्धृत साहित्य, इतिहास और तत्त्वज्ञान आदि विषयके प्रौढ, अपूर्व तथा कई सर्वथा अज्ञात ग्रन्थरत्न आधुनिक पद्धतिके अनुसार संशोधित - सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुके हैं; और इसी स्वल्पकालके अन्दर ही इन विषयोंके प्राच्य और प्रतीच्य विशिष्ट विद्वानों की प्रशंसा और सौहार्दपूर्ण दृष्टि भी आकर्षित कर चुके हैं। वर्तमानमें वैसे ही उच्चकोटिके कुछ ग्रन्थ छप रहे हैं
और कुछ ग्रन्थ छपनेके लिये तैयार हो रहे हैं । आशा है कि अबसे यह कार्य और भी विस्तार और प्रगतिपूर्वक चलेगा।
शिल्प, स्थापत्य, इतिहास और पुरातत्त्वसे संबंध रखनेवाली अन्य चीजोंका शौख मुझे छोटी उम्रसे ही रहा, जो बौद्धिक विकाशके साथ साथ क्रमशः विशेष वृद्धिंगत हुआ। उसके फलखरूप मैंने अपनी शक्तिभर प्राचीन और मूल्यवान् अनेक वस्तुओंका संग्रह किया है, जो पुरातत्त्व, इतिहास और कलाकी दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। परन्तु इन वस्तुओंका प्रकृत उपयोग और वास्तविक मूल्यांकन उन उन विषयोंके सुयोग्य विद्वानोंके द्वारा ही हो सकता है। मेरे निजके अनुभवकी वात है कि इतने बाह्य साधनोंकी सुलभता होते हुए भी इन विषयोंकी चर्चा, खोज और अध्ययन करके इससे लाभ उठाने वाले सुयोग्य विद्वानोंका अपने समाजमें एकान्त अभाव है और यह अभाव मुझे बहुत ही अखर रहा है। ___ "श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशनके उपयोगी ग्रन्थोंके संकलन, संशोधन
और सम्पादनके कार्यमें सहकार और साहाय्य देनेवाले उपयुक्त विद्वानोंका अभाव, उस कार्यमें अगाध परिश्रम करनेवाले उसके प्रधान सम्पादक मुनि श्री जिनविजयजीको इतना खटकता है और वैसे व्यक्तियोंको जुटानेमे पंडितजी और मुनिजीको इतना बोझ और परिश्रम उठाना पडता है कि कभी कभी उनोंके मनमें भी भविष्यकी प्रगतिके लिये निराशाकी झलक दिखाई देने लग जाती है।
करीब सो वर्ष हुए 'इस' देशमें भारतीय सभी विद्याओंका अध्ययन और अध्यापन एक नई दृष्टिसे होने लगा है, जिसके पुरस्कर्ता मुख्यतया विदेशी विद्वान ही रहे । इसके फलखरूप यूरोप और अमेरिकाकी यूनिवर्सिटिओं, कोलेजों और खानगी संस्थाओंकी तरह भारतमें सरकारी, अर्धसरकारी, राष्ट्रीय, खानगी अनेक संस्थाओंमें, अनेक प्रकारकी जुदी जुदी भारतीय विद्याओंकों पढने पढानेवालोंका तथा उन पर काम करनेवालोंका एक सुयोग्य वर्ग तैयार हुआ है जो इस दिशामें किमती काम कर रहा है। ___ भारतीय विद्याओंमें जैन परम्पराका एक विशेष स्थान है। उसके पास अनेक प्रकारकी बहुमूल्य पुरातन सम्पत्ति है जिसका अध्ययन अध्यापन पाश्चात्य देशोंकी तरह इस देशमें भी मुख्यतया जैनेतर वर्ग ही कर रहा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org