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________________ ७२ ] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [ तृतीय - ४ पेटियां जितना भी टुकडा आपको यहां जेसलमेर में नहीं मिल सकता; तो फिर २ न तो बात ही कैसे की जाय ?" इधर उधर सब जगह तलाश करने पर यही पता चला कि जेसलमेर में ऐसी पेटियां बनानेकी कोई सामग्री नहीं है । वह सब सामग्री कहीं बाहर से लानी चाहिये और इस महायुद्ध के आपत्कालमें वह संभव नहीं है । हो गया, भण्डारके ग्रन्थोंकी रक्षाका जो मनोरथ मेरे मनसें उत्पन्न हुआ था वह तत्काल तो वहीं विलीन हो गया । जेसलमेरके संघको मैंने आश्वासन दिया कि लडाईके बाद यदि फिर संयोग बना तो मैं आ कर इस कार्यको करनेकी कोशीश करूंगा । जैसलमेर से प्रस्थान इस तरह पूरे ५ महिने मैंने जेसलमेर में व्यतीत किये। इतने समय में मैंने न केवल किले मेंके बडे ज्ञानभण्डारका ही अवलोकन - अन्वेषण आदि कार्य किया; अपि तु आचार्यगच्छीय भण्डार, थेरुशाहका भण्डार, तपागच्छीय भण्डार, बडे उपाश्रय में रक्षित यतिवर्य श्रीवृद्धिचन्द्रजी एवं उनके शिष्यवर्य पं० श्रीलक्ष्मीचन्द्रजीका भण्डार तथा यतिवर्य श्रीडूंगरसीजीका भण्डार - इत्यादि सभी छोटे बडे भण्डारोंका मैंने निरीक्षण किया । लोंकागच्छीय उपाश्रयका ज्ञानभण्डार, जिसको आज तक कभी किसीने नहीं देखा था, उसको भी मैंने देखा । इन सब भण्डारोंमेंसे, मेरी दृष्टिसे मुझे जो कुछ नवीन और अधिक उपयोगी साहित्यिक सामग्री मालुम दी उसकी हस्त प्रतिलिपियां तथा टिप्पणियां वगैरह तैयार कीं । कोई छोटे बडे २०० ग्रन्थोंकी संपूर्ण प्रति लिपियां कराई गईं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा प्राचीन देश्य भाषामें प्रथित न्याय, व्याकरण, आगम, कथा, चरित्र, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द, अलंकार, काव्य, कोष आदि विविध विषयोंकी रचनायें इसमें अन्तर्भूत हैं । ताडपत्र पर लिखित प्राचीनतम प्रतियोंकी भिन्न भिन्न प्रकारकी लिपियोंकी तथा उनमें प्राप्त चित्र आदिकोंकी प्रतिकृतियां लेने की दृष्टिसे पचासों ही फोटोप्लेट भी उतरवाये गये । इस कार्य में, श्रीयुत प्रो० केशवराम का. शास्त्री, पं० अमृतलाल, पं० शान्तिलाल सेठ, पं० मूलचन्द ग्यास आदि मेरे साक्षर साथियोंने तथा अन्य कई लेखकोंने पूर्ण उत्साह एवं बडी एकाग्रता के साथ मेरा हाथ बंटाया और मुझे सफल मनोरथ बनाया । प्रायः ३५०० लगभग इस कार्यमें अर्थव्यय हुआ । यह कहनेकी जरूरत नहीं कि यह कार्य 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' के लिये ही किया गया था और इसका यह सारा खर्च सिंघीजीकी ओरसे ही हुआ था । जेसलमेर के केवल जैन संघने ही नहीं, सभी ग्रामवासियोंने मेरे और मेरे साथियों के प्रति अच्छी तरह प्रेमभाव प्रदर्शित किया । जैन संघने तो हमको एक आतिथ्यपूर्ण सत्कार समारंभ से सम्मानित भी किया । ता. २९ अप्रेलको सायंकाल ४ बजे करीब जेसलमेरसे हमने विदाय ली । श्रीमान् महारावलजीने आज्ञा की थी, कि वे खुद अपने महलोंमेंसे, अपनी निजकी मोटर में बिठा कर मुझे बिदा करेंगे । तदनुसार मैं उनकी सेवामें उपस्थित हुआ और भाषा घंटा बातचीत आदि करके उन्होंने बडे प्रेम और सद्भावसे मुझे बिदा किया। मेरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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