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________________ १०] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय विराजे हैं। बल्कि उन्होंने आपका उन पर आया हुआ पत्र भी मुझे देखनेको भेज दिया है कि जिसे पढ़ कर वहाँकी सारी परिस्थितिसे वाकिफकार हो जाऊँ। वहाँकी परिस्थितिका अनुभव कुछ तो हमें पहले भी था। हम जब सं० १९८६ में वहाँ गये थे तब भोयरेके भण्डारके तीन या चार चाबीवालोंको एकत्रित कराके भण्डार खुलका कर देखा था, बस देखने ही भर था, और तो हम भी क्या समझते? आध घण्टे देख सुन कर बाहर निकल आये। ज्ञानकी पूजा कर दी। इतना तो जरूर देखा, प्राचीनकालके भण्डार स्थापन करनेवाले इसे कितने यत्नके साथ, पाषाणकी पेटियों और आलमारियों में भोयरेके अन्दर, सुरक्षित रखनेका प्रबन्ध कर गये थे और अब उन्हींके वारिस अपढ़ और उज्जद लोगोंके हाथमें आ कर इसकी कैसी दुर्दशा हो रही है। हमारे धर्म, साहित्य और समाजका अमूल्य रत्न ऐसे लोगोंके अधीन है कि जो उसके महत्त्वका कुछ अंश भी नहीं समझते। आपने लक्ष किया हो तो जरूर देखा होगा कि एक कोनेमें अनेकों पुस्तकोंके दो दो चार चार अलग पानोंका ढेर झाडूसे बटोर कर रखा हुआ है। पूछनेसे मालूम हुआ कि जब कभी पुस्तकें धूपमें दी जाती हैं तब हवासे उड़ कर उनके पाने इधर उधर हो जाते हैं। कुछ तो जहाँ के तहाँ रख दिये जाते हैं, कुछ जो समझमें नहीं आते कि कहाँके हैं, वे ऐसे ढेर कर दिये जाते हैं । इस रीतिसे वह ढेर बढ़ता जाता है। न मालूम उनके इस अनाड़ीपनसे कितनी ही अमूल्य और अद्वितीय पुस्तकें त्रुटित हो गई होंगी। पुस्तकें त्रुटित होनेका यही कारण है। भण्डार करनेवालेने त्रुटित ग्रन्थ कभी भण्डारमें नहीं रखवाया होगा। अब आपका खास्थ्य अगर सहायक हो, और आप वहाँ कुछ रोज जम कर बैठ सकें तो हमें पूरी आशा है कि आप उस अपूर्व ग्रन्थ भण्डारमेंसे कुछ ऐसे रत्न चुन कर जरूर लावेंगे जो 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' को अधिक सुशोभित करेंगे और जैन साहित्यके कितनेक अज्ञात तथा अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रकाशमें लावेंगें। . मालूम नहीं आप पहले भी कभी जेसलमेर गये थे या नहीं। वहाँकी प्राचीन राजधानी लोद्रवामें अपना जैन मन्दिर भी एक स्थापत्य शिल्पका अपूर्व और अद्वितीय नमूना है, जो अवश्य देखने योग्य है । उसका तोरण जो अब तक अखण्ड है बड़ा ही सुन्दर है। प्रतिसाएँ भी बड़ी मनोहर हैं। परन्तु उन पर चक्षु, टिला, गलबन्ध (collar ), कपालपट्ट, ठुड्डी में हीरा आदि आदि न मालूम कितने उपसर्ग लगा कर उनकी मनोहरताको नष्ट कर दिया गया है । मन्दिरमें भी कबूतर हगते होंगे, साफ करनेका कोई प्रबन्ध नहीं, परन्तु फिर भी दर्शनीय है। आज हमने श्रीमुंशीजीको एक पत्र लिखा है जिसकी नकल आपकी फाईलके लिए भेजते हैं । मेरी तरफसे अब कोई बात यानी कर्तव्य बाकी नहीं रहा। अब वे लोग उसे कानूनी तौर पर ले कर (Take over ) कार्य चालू कर दें तो हो जावे । __ और यहाँ सब कुशल है, आपके स्वास्थ्य सम्बन्धी तथा वहाँके कुछ कुछ हालात बीच बीचमें अवसर देख कर लिखनेकी कृपा करें। सब कोईका प्रणाम मालूम करें । __ आपका विनीत-बहादुरसिंह ... इस पत्रके पढ़नेसे ज्ञात होगा कि सिंघीजीको हमारे साहित्य और स्थापत्यकी महत्ताका, एवं रक्षाका कितना ऊंचा खयाल था और हमारे अज्ञान समाजकी ओरसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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