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अध्याय २ -- रीति-काव्य
नायक के २४० भेद बताये हैं
पति उपपति वैसुक कहौ, नायक तीनि विचारि । अनुकूल दछिन धृष्ट सठ, चारि चारि अनुहारि ॥ ३ ४ ४ = १२ ससा जैन वृष तुरंग गुन, सब मैं व्यापत प्रान । १२४५ % ६० . सांठ होत या रीति सौं, भाषत सुकवि पछान ।। अभिमानी त्यागी छली, भव्य भान सब होत । ६०४४ = २४०
द्वै सै चालिस जोरि के, बरनत सुकवि उदोत ॥ नायिका के ११५२० भेद बताये हैं
सुकियादिक सब नाइका, हाव भाव सविलास । कवि हरिनाथ विचारि के, वरनी विनय प्रकास ॥ भाव विभावानुभाव अरु, संचारी सुषसाज । थाई सात्विक आदि है, जानि लेहु महाराज ॥ ३८४ चौरासी प्ररु तीन सै, तिगुनी कर रस देस । ३८४४३ - १९५२ ग्यारह से बावन भई, सुनिये विनय नरेस ॥ उत्तिम मध्यम अधम मिति, दिव्यादिक पहिचान । करौ दसगुनी तासुकी, कविकुल कहत बषान ॥११५२४१० - ११५५० ग्यारहै सहस रु पाँचसौ, बीस भई ये रीत ।
सुनिए विनय नरेस यह, भाषत सुकवि प्रतीत ॥ प्रौढ़ा विप्रलब्धा का वर्णन देखिए
फूले फूले फूलन के गहने गुहाई घने , फूलन की माल सुषजाल हाल पहिरी । रतन - जटित टीको नीको मन भामती को , जीको हीको लीको नीको लागै छवि गहिरी ॥ 'कवि हरनाथ' आई रति के महल बीच देषि के संकेत सुनो दूनो दुष दहि री । भौंचकी बकीसी जकी लकी-सी छकीसी अति
अकपकी भई बावरी सी बहिरी ॥ रूपविता का भाषण सुनिए
मेरे नैन हरि मीन मृग वनवास कीन्हों , केहरी को कोल कुठि गयो लषि कटि तट । देषि गत गवन मराल गजराज दोऊ , अति अकुलानि कुलिलानि कंज पद दट ।।
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