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परिशिष्ट ३
[ २८६ भूषण' की उपाधि मिली थी। इनके लिखे ग्रंथों की संख्या ३४ बताई जाती है, जिसमें नीति, कृष्णलीलाएं तथा देवी-देवताओं संबधी कविताएं प्रादि हैं। संवत् १६५८ में प्रापका देहावसान हुआ। अलवर के अनेक कवि इनके शिष्य थे। इनके जीवन के पिछले ३० वर्ष बूंदी में व्यतीत हुए, किन्तु कविता का प्रारम्भ अलवर में ही किया तथा अलवर भूमि और राजाओं का मनोहर वर्णन भी किया
१ बटत बधाई आज सुत के उछाह मॉझ ,
पाई कविवृन्द नै अनन्द सन्मान में। दीनै घने गांव कंकन दुशाल माल , घूमते मतंग अंग फूले सुभ थान में। सुकवि गुलाब जमि एक से कहा लौं कहें , कीरति तिहारी प्रति छाई हिन्दुवान में। नन्द विनयश के प्रतापी शिवदानसिह ,
या समै न प्रान कोउ तो समान दान में॥ २ दाजन दै दुरजीवन को अरु लाजन दे सजनी कुलवारे ।
साजन दे मन को नवनेह निवाजन दे मन मोहन प्यारे ।। गाजन दे ननदीन 'गुलाब' विराजन दै उर में गनु भारे।
भाजन दै गरु लोगन के डर बाजन दे अब नेह नगारे ।। इनकी शिष्य परम्परा बहुत विस्तृत है । अलवर में इनके शिष्य किशनपुरे के ठाकुर विड़दसिंह और ईश्वरीसिंह थे। घंबाला के ठाकुर नरूको हनवन्तसिंह भी इनके शिष्य थे। बूंदी में चौबे जगन्नाथ जी इनके प्रमुख शिष्य थे । ४. चन्द्रकला बाई
यह कविराव गुलाबसिंहजी की दासीपुत्री थीं। कविराव जी के साहचर्य से इन्हें समस्यापूर्ति में विशेष प्रवीणता प्रा गई और हिन्दुस्तान के अनेक प्रसिद्ध नगरों में जा-जा कर कविसभात्रों में समस्याओं की पूर्ति किया करती थीं। अनेक स्थानों से इन्हें मानपत्र मिले। सन् १८६० में बिसवा जिला सीतापुर से अवध की कविमंडली द्वारा 'वसुंधरारत्न' की पदवी मिली। इनके लिखे चार ग्रन्थ बताए जाते हैं
१. करुणाशतक २. रामचरित्र ३ पदवीप्रकाश
४ महोत्सवप्रकाश यह पहेलियां भी लिखा करती थीं। जैसे
कारौ है पै काग न होई । भारौ है पै शैल न होई ।। करै नांक सौ कर को कार । अर्थ करौ के मानो हार ॥ (हाथी)
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