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मत्स्य-प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
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मिलाइए
पश्यतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्र ण तव शिष्येण धीमता ॥ इस अनुवाद में पंक्ति का पंक्ति में अनुवाद किया गया है, किन्तु पद्यात्मक अनुवाद होने के कारण कुछ शब्दों का अनुवाद छूट भी गया है और साथ ही कुछ छोटे मोटे शब्द बढ़ भी गए हैं । वैसे अनुवाद काफी अच्छा और मंजा हुमा है। भागवत के भी कई अनुवाद मिले । ये अनुवाद अधिकतर भजन करने के बस्तों में पाए गए । मेरे पूज्य पिताजी के पूजा वाले बस्ते में भागवत और गोता भाषा टीका की दो हस्तलिखित प्रतियां अब तक सुरक्षित हैं किन्तु अनुवाद-कर्ता तथा अनुवाद करने के समय का कुछ पता नहीं लगता, इसीलिए ऐसे अनुवादों को मत्स्य-प्रदेश के साहित्य में सम्मिलित करने में संकोच होता है ।
कलानिधिजी के सहयोगी कवि सोमनाथजी ने 'भागवत दशमस्कंध' के उत्तराद्ध का अनुवाद किया।' उदाहरण देखें---
पंचासै अध्याइ में, जरासंध के त्रास । दुर्ग रचायौ सिंधु में, श्री गोविंद प्रकास ।। तहां आपने नरनि को, राषि कुटुब सहित्त । मार कपट जुत दैत्य को, करि के कपट-चरित्र । परम सुघर श्रीकृष्ण ने, धरमरीति को साजि ।
जरासिंधु को जीत लिय, पुनि बिनु जतने गाजि ।। इस अनुवाद के कुछ अंश मूल सहित दिए जा रहे हैं"श्री शुकोवाचअनुवाद
मूल अस्ति प्राप्त इमि नामनि वारी ।
अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य नृपति कंस की _ वरनारी ॥
महिष्यौ भरतर्षभ। कंस कंत के मरे दुध्यानी।
मृते भर्तरि दुःखार्ते गई पिता के गृह अकुलानि ।।
ईयतुः स्म पितुहान् ।
कवि ने इस पुस्तक का नाम 'व्रजेंद्र विनोद' रखा था। देखिए--
'इति श्रीमन्महाराजाधिराज व्रजेंद्र श्री सुजानस्यंघ हेतवे माथुर कवि सोमनाथ विरचिते भागवत दशमस्कंध भाषायां 'वजेंद्र-विनोद' द्वारका दुर्ग निवेशनं नाम पंचाशत्तमोध्याय ॥ ५० ॥ यह प्रति संवत् १८३७ की लिखी हुई है । पुस्तक के अन्त में लिखा है-- 'श्री मनमहाराजधिराजा व्रजेंद्र रणजीतसिंह पठनार्थं लिपिकृतं काशमीरी पंडित भास्करेण । संवत् १८३७ ज्येष्ठ शुदि दस सोमवासरे।'
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