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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन और फिर 'तरंग' के अनुसार चोथे चरण में इस प्रकार कहते हैंप्रथम तरंग-तह ग्रंथ के प्रारंभ माहि तरंग प्रथमहि क सच्यौ । द्वितीय तरंग-तहं जग्य के प्रारम्भ माहि तरंग दूजे को सच्यौ । षष्टम तरंग-किय पराजय नृप यौवनास्व तरंग षष्टम को सच्यो । नवम तरंग-व्यासोक्त धर्म नरेस प्रति सु तरंग नवमहि को सच्यौ । अंतिम तरंग--वर्नन स्रवन माहात्म्य को सु तरंग सतसठि को सच्यौ ।'
' अश्वमेध पर्व में दिविजय के हेतु बहुत से संग्राम हुए थे। महाराज बलदेवसिंहजी ने भी
अनेक युद्ध किए और विजय प्राप्त की। कवि ने दोनों समय के युद्धों में समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की है। कवि लिखता है--
समर घोर किय लिक्क संग, श्री बलदेव सुजान। ताको कछुक उदाहरन, कीजत मति अनुमान ।। श्री वजेंद्र बलदेव इमि, जीति लिक्क संग्राम । लह्यो सुजस रूपी जगत, जैत पत्र अभिराम ॥ विक्रम त्याह प्रताप को, सुनियत सुजस दिगंत । तिनके पुत्र प्रसिद्ध जग, प्रगटे श्री बलवंत ।। तिनके माथे सोंपि सब, राजकाज को भार ।
सेवन किय गिरिराज को, निज कुल-धर्म विचार ।। पुस्तक में बलदेवसिंह का रणकौशल भी दिखाया गया है--
१. षग्ग गहि कर में उमग्गि बलदेवसिंह ,
असे कोपि लिक्कदल उप्पर निकारे कर । भन 'रसग्रानंद' वितुडन के पंडन के , सुडन मुसंडन के पारे भुव भारे भर ।। ठट्ट जुरि कोट पं इकठे जो सुभट्ट चढ़े , कट्टि कट्टि जट्टन ने दट्टि के उतौरतर । वर कों वरंगना टटोरति न रुडन औ , हार हेत मुडनि बटोरत न हारे हर ।। २. असो कीनों समर प्रतापी बलदेवसिंह ,
जाको लषि छाती धधकाती अमरन की। भनि 'रस अानंद' जमात भूत जुग्गिन के , नचत चरन लागी कीच रूधिरन की ।। प्रमुदित वरनि वरंगना वरन लागी, कांति उभरन लागी ज्योति बिवरन की। काटि काटि वटका मग खी करन लागी , परवी परन लागी चरवी - चरन की ।।
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