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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
२४७ संभवत: वैर में रहते समय उनका ध्यान संस्कृत पुस्तकों के अनुवाद की ओर अधिक गया । कहा जाता है इन्होंने 'दुर्गासप्तशती' का भी अनुवाद किया था। उन्होंने 'रामगीतम्' के नाम से संस्कृत में एक मौलिक गीतिकाव्य भी लिखा था।' गीता का अनुवाद भी हुआ । इस प्रकार मत्स्य प्रदेश में सभी धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद हुए
१. रामायण, २. महाभारत, ३. भागवत, ४. गीता,
५. उपनिषद्, आदि इनके अतिरिक्त संस्कृत के तथा नीति साहित्य के ग्रंथों का अनुवाद करने की ओर भी प्रवृत्ति रही। हितोपदेश के कई अनुवाद मिले । 'सिंहासन बत्तीसी' का हिन्दी रूपान्तर अनुवाद तथा छाया दोनों में पाया गया। संस्कृत पुस्तकों के उर्दू अनुवाद भी किए गए और सर्व साधारण के हेतु उन्हें नागरी में लिपिबद्ध किया गया। ___ संस्कृत के अतिरिक्त फारसी ग्रन्थों का भी अनुवाद होता रहा । इनमें कथासाहित्य का तो आधिक्य रहा ही जैसे 'अनवार सुहेली', साथ ही राजनीति के ग्रन्थ भी हिन्दी में अनूदित किए गए । 'पाइने अकबरी' का एक छोटा छायानुवाद 'अकलनामा' के अंतर्गत प्राप्त हुआ है।
मत्स्य-प्रदेश में भारत की अन्य भाषाओं में लिखित पुस्तकों के अनुवाद नहीं मिलते। उन दिनों इस प्रकार की पुस्तकों के अनुवाद करने की प्रथा भी
१ रामगीतम् का एक श्लोक
खैलन्मंजुल-खंजरीटनयना पूर्णेन्दु-बिंबानना। तारामंडलमंडनातिविशदज्योत्स्नादुकूलावृता ॥ वक्षो जायित-चक्रवाकमिथुना चंचन्मृणालीभुजा।
फुल्लत्कोकनदौघ पारिणचरण भाते शरत्कामिनी ।। शरत्कालीन वर्णन के साथ कामिनी का रूप-लावण्य । शरद ऋतु के सदृश यह कामिनी किसे अच्छी न लगेगी। यह ग्रंथ गीत-गोविन्द की पद्धति पर है। शृंगार के सभी गुणों से परिपूर्ण यह ग्रंथ वर्तमानकाल के कवि 'हरिऔधजी' का पथ-प्रदर्शक सा प्रतीत होता है । ऊपर दिए गए छंद से मिलाते हुए ‘हरिप्रौधजी' की यह पंक्ति देखिए जो उसी छंद
शार्दूलवि.---'रुपोद्यानप्रफुल्लप्रायकलिका राकेन्दुबिंबानना' आदि ।
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