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________________ मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन २२७ था। उनमें वर्णन का माध्यम पद्य ही रहता था जो पुस्तक के आगे के अध्यायों से संबंधित होता था। इस प्रकार का प्रस्तावना-अंश पुस्तक का अंग ही समझना चाहिए। ३. किसी पुस्तक का प्रारम्भ तथा अन्त करते समय उससे संबंधित सूचना देने के रूप में कि क पुस्तक का नाम क्या है। ख रचयिता कौन है। ग निर्माण किस संवत् में हुआ। घ लिपिकार का नाम और पता । ड़ लिपिबद्ध करने का समय । च किसके लिए लिखा गया। छ लिखने का समय क्या है। ज लिखने का प्रयोजन आदि, आदि । प्रारम्भ मे गणेश, सरस्वती अथवा किसी अन्य देवी-देवता के लिए नमस्कार । कभी-कभी ग्रंथ का नाम और रचयिता का नाम भी। ४. पुस्तक के प्रत्येक सर्ग, अध्याय आदि के अंत में पुस्तक का नाम, रचयिता का नाम और उस सर्ग अथवा अध्याय के वर्ण्य-विषय का संकेत होता था। यह सूचना बहुत उपयोगी सिद्ध होती है___ क अध्याय विशेष के वर्ण्य-विषय का पता लगाने में। ख अपूर्ण पुस्तक होने पर पुस्तक का नाम आदि जानने में । ५. कहीं-कहीं पुस्तकों के बीच में किसी बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए भी गद्य का प्रयोग होता था। ऐसा माना जाता था और अब भी यहो धारणा है कि जहां तक किसी बात की व्याख्या करने का प्रश्न है पद्य की अपेक्षा गद्य की शक्ति अधिक है । अत: कठिन प्रसंगों को समझाने के लिए गद्य का प्रयोग किया जाता है । गद्य का यह रूप रीति-ग्रन्थ, इतिहास-ग्रन्थ, कथा-ग्रंथ आदि में मिलता है। ६. गद्य की स्वतन्त्र पुस्तकें जिनमें निम्न प्रकार की पुस्तकें मिलती हैं क किस्से, 'षीसा', 'षिस्सा', कहानियां आदि । ख नीति-प्रतिपादन। ग सिंहासन-बत्तीसी, हितोपदेश आदि के अनुवाद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelib www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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