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________________ अध्याय ४ - भक्ति-काव्य मिला जिसमें अच्छी कविता प्राप्त होती है। यह पच्चीसा सत्यनारायण की स्तुति में लिखा गया है । कुल सवैयों की संख्या २५ है जिनमें से पहले सवा तीन गायब हैं । प्राप्त पुस्तक चौथे सवैये के दूसरे चरण से प्रारंभ होती है । जब टेर सुनी गजराज ही की वृजराज ही धाए हे छिपकने । दुष मध्य सभा के पुकारी ही द्रौपदी राषी प्रभावते लाजपने ।। इमि भक्त अनेक के काज सरे त्यों लिहाज की पार जगाएं बने । क्रपा रावरी को नहिं पार अब प्रभु सत्यनारायण तो सरनें ।। कलिकाल महा विकराल रहै सो विहाल करै को उपाइ ठनें। प्रन पाल्यौ है ज्यों प्रहलाद कौ त्यों गम रक्षा करौ अब बात बनें ।। इक तेरौ भरोसौ षरौ सौ रहै प्रन पालिए संकट के हरने । सुनिहारि निहाल करौ छिन में प्रभु सत्यनारायण तौ सरनें ।। अनुप्रास भी देखिए-- जनमें जगके जिब जंतू जितेक जिने जिय जीवन जे अपने। अघ अोधन तें अति प्रारतवंत अबेही अनंत करौ अपने ॥ और अन्त में इस पच्चीसा का फल भी लिखा है सत्यनरायन बीनती, जुगल कृत्य जनहेत । जो याकू सीष सुनें, मन वंछित फल देत ।। इसी युग में प्रसिद्ध महात्मा चरणदासजी का आविर्भाव हुआ। इनको दो शिष्याएँ सहजोबाई और दयाबाई अपने गुरु के समान हो काव्य-कला-मर्मज्ञ थीं। इन तीनों की कविता में निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्ति का रूप मिलता है । चरणदासजी की वाणी का “भक्ति सागर' नाम से प्रकाशन हो चुका है, और इनको शिष्या सहजीबाई का 'सहजप्रकाश' तथा दयाबाई के 'दयाबोध' और 'विनय मालिका' भी प्रकाशित हैं। हमने इनके हस्तलिखित ग्रन्थों को भी देखा और इसी प्रसंग में डेहरा की भी यात्रा की गई। डेहरा चरणदासजी की जन्म भूमि है और यहीं इनकी दोनों शिष्याओं का भी निवास था। इस स्थान में चरणदासजो की कुछ वस्तुएँ, टोपी, खड़ाऊ आदि अब तक मिलते हैं। महात्मा चरणदास भार्गव वंश में संवत् १७६० के अंतर्गत प्रगट हुये। इनके सम्बन्ध में अनेक चमत्कारपूर्ण कहानियाँ हैं। इनके गुरु शुकमुनि थे और उनकी ही प्राज्ञा से यह दिल्ली गये, जहां इनका स्थान है । ऐसा भी कहा जाता है __दिल्ली से चलकर गये, वृन्दाविपिन बिहार । और वहाँ सेवाकुंज में पहुँच कर भगवान का साक्षात् दर्शन किया। इससे यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि वे सगुणवादी थे और भगवान कृष्ण में उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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