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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
नगने की नारि आरु पंनग कुमारि केती, निपुन तन धारि वृजनारि बन आई हैं । सुरन की बाला संग अंगना रसाल उदै, लालन की माला मानों गिरि को पहराई हैं ॥
और उदैरामजी का एक विचित्र युद्ध और देख लीजिए -
येक बरि सुनि के भई, सब ही के तन त्रास । मग में मारन कौं कहे, समर सूर सन्यास ||
उत ही रितुराज रुप्यो रन को सुनि के सजि श्रावत संत नी । इत में करुणाइ कियो कंपू उत काम की कौपि खड़ी कंपनी ॥ १ तबही सब वीर बुलाइ कही सजहू सबही अब श्राइ बनी । गिरिभूमि भई हरद्वार यही जै चाहत हैं अपनी अपनी || जुवती जन पलटनि पड़ी, करी जहां जनु मैंन । जाके बल जीत्यो जगत, कहा संत लघु सेंन ॥ दृग बंदूक भरि भरि सकति, अंजन रंजक प्याइ । चितवनि चकमक तक लगी, म्रकुटी कनि चढ़ाइ ॥
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गान की कमान हांसी गांसी संधान तामें, तीषी तान तीरन सों वीर उर बेधे हैं । कुंतल कटारन सों बेनी पैनी धारन सौं, तारी तरिवारन सौं मारि मारि षेदे हैं । चिवनि के चकृनि सों मारे परे मक्रनि से भूमि भवसागर में फेरि न उमेदें हैं । भोहन चढ़ाई सर लाइ नैंन नावक में
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अंजन भरि मालि व्यालि छेकि छेकि छेदे हैं ।।
इस प्रकार 'सांति - सिंगार' के समर का वर्णन किया है । इसके पश्चात् श्रन्नकूट का वर्णन है, जब दानघाटी में भारी भीड़ हो गई थी । इसी समय महाराज सूरजमल की सवारी भी निकली और इस प्रसंग में कवि कहते हैं
सूरजमल मुख पर लखी सूरजमुखी महान । अस्ताचल को जात जनु संध्या समय सुभान ॥ दरसन करि हरदेव के हरसि हृदय सुख पाइ । दिनमनि गत प्राप्त भये नृप निज कुंजै जाइ ॥
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१ कंपू, कम्पनी - फौज 1
'हरदेवजी का मंदिर' और 'भरतपुर की कुंज' श्राज तक विद्यमान हैं। कुंज तो टूटी-फूटी अवस्था में है किन्तु नियमित पूजा सेवा के कारण हरदेवजी का मंदिर अच्छी अवस्था में हैं ।
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