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मत्स्यप्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
१४३ किन्तु गोपियां कृष्ण को आश्वासन देते हुए संदेशा भिजवा रही हैं
एक बेर फेरि ब्रजमंडल में प्राग्रौ कान्ह , अब सब सूधी भई मान हूँ न करेंगी। दान हूँ मैं नेक हूं कहूँ न झगरेंगी अरु , माखन मलाई कूछिपाइ के न धरेंगी। नई प्रानप्यारी हू की कांन हम मानि लैहैं , बाकी है रहैगी रसरासि वासौं डरेंगी। दोऊ कर जोरि जोरि कोरि कोरि चाइन सो,
दौरि दौरि कूबरी के पाइन परेंगी। इससे अधिक बिचारी गोपियां और क्या कह सकती थीं। और ऊधौजी हमें तो सन्तोष है
कहां हम गोकुल के गोपी गोप ग्वाल बाल , चंचल चवाई चोर त्यों कठोर ही के हैं। कहां वे कमल दल नैन कमला के नाथ , एक साथ चाष पारे षाटे मीठे फीके हैं। तीनों लोक मांझ धन्य धन्य ब्रजवासी भए, जीवन मुक्ति रसरासि प्रान पीके है। ऊधी जी हमारे इहा दोऊ हाथ लाडू पाहै ,
प्रावे तऊ नीके न आवे तऊ नीके हैं। अब तो ऊधौ अपना ज्ञान ध्यान सभी भूल गये और कृष्ण के पास पहुँचे।
राधेकृष्ण राधेकृष्ण एक रटि लागिरह्यौ , रोवत हंसत पुलकत छवि छायो है । छकनि छकायौ वाको चित चिकनायौ देषि ,
कान्ह को सुहायौ दौरि गरे सौं लगायौ है । उद्धव सिफारिश करते हुए कहते हैं---
तुम अरु वे तो सदा रहत हिलेई मिले , सो तो रसरासि कथा रसिकन गाई है। कहा मन आई यह सामरे कनाई इहां . आप छिपि रहे उहां राधे को छिपाई हैं । अतः जाह सुधि लीजिये कि लीजिये बुलाइ उन्हें ,
भरे रसरासि प्यारु त्रासन सों स्वैरहै । 'राधा' से सम्बन्धित दो स्वतंत्र पुस्तकें मिलीं-एक राधामंगल और दूसरी राधिकाशतक । राधिकाशतक एक खण्ड काव्य है और अलवर के कविश्रेष्ठ जयदेवजी का लिखा हुआ है । अलवर दरबार में जयदेवजी का बहुत मान था और इनकी यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। राधामंगल गोसाईं रामनारायण द्वारा
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