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________________ १२२ अध्याय ४ - भक्ति-काव्य भरतपुर और अलवर के बहुत से भक्त तो गोवर्धन की यात्रा पैदल ही करते हैं, और सप्तकोशी परिक्रमा समाप्त कर के पैदल ही घर लौट पाते हैं । गले में पीले सीकों की बहुत सी कंठियां पहने, अलगोजा बजाते व्यक्ति जब वापिस आते दिखाई देते हैं तो इन 'रसियों' को देख कर ब्रज के पुराने दिन याद आ जाते हैं । गोवर्धन में मुखारविंद पर पूजन को बहुतसी सामग्री चढ़ती है । कोई भक्त दूध की धारा से सातों कोस की परिक्रमा देते हैं। कोई छप्पन भोग लगवाते हैं जिसमें काफी द्रव्य लगता है । गिरिराज की सप्तकोशी की परिक्रमा के साथ मानसी गंगा की भी परिक्रमा दी जाती है । मानसी गंगा का स्नान गंगा-स्नान के तुल्य गिना जाता है । आज भी मानसो गंगा का दीपदान बहुत प्रसिद्ध है । भरतपुर के राजा तो गिरिराज महाराज के बड़े भक्त रहे हैं और ग्राज तक भरतपुर के महाराज उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजन तथा परिक्रमा करते हैं। अनेक भक्त गिरिराज की 'दंडोती' (सातों कोस की ढोक देते हुये परिक्रमा) करते हैं। कुछ ही दिन पहले भरतपुर महाराज ने दंडोतो लगाई थी । गोवर्धन की मान्यता दूर-दूर तक है और मत्स्य तो इससे काफी प्रभावित रहा है । गोवर्धन के पंडे अाज भी देश-परदेश जा कर अपने भक्तों से दक्षिणा-भेंट प्राप्त करते हैं। इन लोगों के द्वारा ब्रज की अनेक लीलाएँ गा गा कर सुनाई जाती हैं। पहले राजघरानों तक में इन लोगों की पहुँच थी और राजा तथा रानियां इनके प्रति भक्ति-भाव रखते थे। भरतपुर को रानी अमृतकौरजी को कृष्ण लीलाओं को अनेक पुस्तकें समर्पित की गईं थीं। ___ गोवर्धन में हरदेवजी का एक प्राचीन मन्दिर है और भरतपुर में भी हरदेवजी का एक मन्दिर है जिसके पुजारी अपने को गसाईं कहते हैं। मैंने यहां के पुराने पत्र आदि देखे जिनसे विदित होता है कि तत्कालीन महाराज ने इन लोगों को गोवर्धन से बड़े आदर-सत्कार के साथ बुलाया था। अनेक स्थानों पर 'हरदेवजी सहाय' लिखा मिलता है। कई कवियों ने भी ऐसा लिखा है । बल्लभकुली गुसाईं भी भरतपुर से बहुत संबंधित रहे। किन्तु जिस समय का वर्णन यहां किया जा रहा है उन दिनों लोगों को राम और कृष्ण की भक्ति में विश्वास था । रासलीला और रामलीला श्रद्धा के साथ देखे जाते थे। ('सरूपों' अभिनयकर्तामों) के प्रति भक्ति-भावना देखी जाती थी। देखते ही देखते लीलाएँ और रास कुछ विकृत हो चले । यह देखा जाने लगा कि पहले तो रास लीला होती थी जिसमें कृष्ण-राधा, उनकी दो सखियां (मुख्यत:) 'ललिता' और 'विसाखा' रहती थीं। 'सरूपों' की पूजा के उपरान्त कुछ नृत्य, रास प्रादि होता और इसके पश्चात् वही रास मंडली नौटंकी में परिवर्तित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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