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________________ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [847 -850). ८३-८४ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं न रोहति यवांकुरः । कर्मवीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ।। [८३] इसा भणनइतउ वली संसारि नहीं रुहइं नहीं ऊपजइं तिणि कारणि अरुहंत कहियई। ती निमित्तु नमस्कारु ति पुणि किसा छई ? भगवंत भगु छए भेदे । तथा हि ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना ॥ [८४] सु समग्र ऐश्वर्यादिलक्षणु भगु जीह रहई हुयइ ति भगवंत । (१२) आइगराणं, तित्थगराणं, सयंसंबुद्धाणं । सं०२। 847) आपणइ २ तीथि सर्वनीति हेतु श्रुतधर्म तणउ आदि करई तिणि कारणि आइकर । तीर्थं 10 चतुर्विधु संघु अथवा प्रथमु गणधरु करई तिणि कारणि तीर्थकर । स्वयं आपहे परोपदेस पाखइ संबुद्ध ज्ञाततत्व तिणि कारणि स्वयंसंबुद्ध । तीहं निमित्तु नमस्कारु । (१३) पुरुसोत्तमाणं पुरुससीहाणं। पुरुसवरपुंडरीयाणं । पुरुसवरगंधहत्थीणं। सं०३। 848) पुरुष विशिष्टसत्त्व तीह माहि तथा स्वभावता लगी असाधारण गांभीर्यादिगुण जोगइतउ 15 उत्तम पुरुषोत्तम । कर्मशत्रु प्रति सूरता करी सिंह सरीखा इति पुरुषसिंह । पुरुषवर पुंडरीक सरीखा । जिम पुंडरीक पंक माहि ऊपजइ, जल माहि वाधई, पंकु जलु बे मेल्ही करी ऊपरि रहइं, तिम अरहंत पुणि कर्मपंकि ऊपना, भोगजलि वाधिया, बेऊ मेल्ही करी ऊपरि रहइं इति पुरुषवर पुंडरीक कहियइं । पुरुषवर गंधहस्ति सरीखा, जिम गंधहस्ति नइ गंधि क्षुद्र गज भाजई ऊभा न रहई तिम तीर्थकर-विहार-वातगंधि करी ईति' दुर्भिक्षादिक उपद्रव गज भाजई इति पुरुषवरगंधहस्ति कहियई। तीहं निमित्तु नमस्कारु । 20 (१४) लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपजोयगराणं। सं०४। 49) ईहां लोकु भव्यसत्यु कहियइं । तेह माहि सकलकल्याणता करी जु छइ तथा भव्यसत्वभावु तिणि करी उत्तम लोकोत्तम । लोग विशिष्ट भव्यसत्व तीहं रहई सम्यक्त्वबीजदानि करी रागादि चोर उपद्रव रक्षणि करी, अलब्धलाभ लक्षणु योगु लब्धपरिपालन लक्षणु क्षेमु करई इति लोकनाथ । 25 लोकु सकलु एकेंद्रियादि प्राणिवर्गु, तेह रहइं रक्षणादि करी हित इणि कारणि लोकहित । लोकु विशिष्ट संज्ञि प्राणिसमूहु, तेह रहइं उपदेस किरणहं करी मिथ्यात्व तिमिर निवारण भावि करी लोकदीप । लोकु गणधरादिकु, तेह रहइं प्रद्योतु तत्वप्रकासु करइं इति लोकप्रद्योतकर । तीहं रहइं नमस्कार। (१५)अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं बोहिदयाणं।सं०५। $50) 'इहपरलोयादाणमकम्हा आजीवमरणमसिलोग' इति सप्तविधु भउ कहियइ। तथा हि30 स्वजाति तणउ भउ इहलोक भउ १, परजाति तणउ भउ परलोक भउ २, चोरराजादिकहं तणउ रिद्धिहरण तणउ भउ आदानभउ ३, वीजपतनादि वसइतउ अचीतवीउ भउ अकस्माद्भउ ४, दारिदिउ हउं किम जीविसु इसउ भउ आजीविकाभउ ५, मरिवा तणउ भउ ६, अपकीर्ति तणउ भउ अश्लोक भउ ७, इति सप्तविधु भउ । तेह नउ अभावु दियई इति 'अभयदय'। तत्वावबोधरूप ज्ञानदृष्टि दियइं इणि कारणि 848) 1 ईति is a type of उपद्रव । There are six types of इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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