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________________ १९ 845 - 846). ७८-८२] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत सीसोकंपिय १५ मूई १६ अंगुलिभमुहा १७ य वारुणी १८ पेहा १९ । एगूणवीस दोसा काउस्सग्गरस वजिज्जा ॥ [७८] घोटक जिम विषमचरणता घोटकु १, वातचालित लता जिम कंपमानकायता लता २, थांभइ भीति ओठंभी करी रहणु थंभकुड्डु ३, ऊपरि माथउं लगाडी करी स्थानु मालु ४, शबरी पुलिंदी तेह जिम गूझ देसि हाथ दे करी स्थानु सबरी ५, वधू जिम माथउं नीचउं करी रहणु वधू ६, निगडित 5 जिम पाद बे मेली करी अथवा मोकला करी रहणु निगडु ७, नाभि ऊपरि गोडा हेठइ प्रलंबमानु चोलपट्टउ करी स्थानु लंबुत्तर ८, दंसादिरक्षा\' अथवा अज्ञानवसि हियउं आच्छादी करी स्थानु थणु ९, शकट अधि जिम अंगूठा अथवा पान्ही मेली करी स्थानु सगडुद्धी १०, साध्वी जिम प्रावरी करी स्थानु संजता ११, खलणि कडियाली तेह जिम रजोहरणु आगइ करी रहणु खलणि १२, वायस जिम चक्षुगोलउ चलावतउ हूंतउ रहइ वायसु १३, कविगु कउछु तेह जिम परिधानु पिंडु करी स्थानु 10 कविट्ठ १४, भूताधिष्ठित जिम माथउं कंपावतउ रहइ सीसोकंपितु १५, मूक जिम हू हू शब्दु करतउ रहइ मूकु १६, आलापक गणिवा निमिन्तु आंगुलि अथवा भांपणि चलावतउ रहइ अंगुलिभमुहा १७, वारुणी सुरा तेह जिम बुडबुडा रवु करइ वारुणी १८ वानर जिम लोगस्सुज्जोयगरे चीतवतउ होठपुट चलावइ पेहा १९, ए ओगुणीस दोस काउसग्ग तणा जाणिवा । जाणी करी वर्जिवा। 845) काउसग्ग माहि 'चंदेसुनिम्मलयरा' सीम 'लोगस्सुजोयगरे' चीतवेवी, पारिइ हूंतइ समस्तइ ।। 'लोगस्सुजोयगरे' भणेवी। इसी परि इरियावही पडिकमी करी गोडिहिलियां थाई महांत संवेग निर्वेद रस संसूचक नमस्कार कही। तउ पाछइ अन्नुन्नंतर अंगुलि कोसागारेहिं दोहिं हत्थेहिं । पिट्टोवरि कुप्परसंठिएहिं तह जोगमुद्द त्ति । [७९] 846) इसी जोगमुद्रा वर्तमान प्रणिपातदंडकु पढइ । सु पुणि एहु(११) नमोत्थुणं, अरहंताणं, भगवंताणं । सं० १। नमस्कारु हुउ, ‘णं' वाक्यालंकारि अर्थि, यथा नम इति एस पणामो अत्थु च्चिय भे भवउ नमुक्कारो। बिंदुसहिओ णयारो वयणस्स विभूसणे भणिओ ॥ [८०] कीहं रहई नमस्कारु ? 'अरहंतागं', 'अरिहंताणं', 'अरुहंताणं' इति त्रिहुं परि पाठु। 25 अरिहंति वंदण नमसणाई अरहंति पूयसकारं । सिद्धिगमणं च अरहा अरहंता तेण वुचंति ।। [८१] ___ इसा वचनइतउ देवदेवेंद्रकृत वंदण नमस्करण सत्कारपूजे अरहइं अथवा सिद्धिगमनु अरहइं तिणि कारणि अहंत कहियई। अट्ठविहं चिय कम्मं अरिभूयं होइ सव्व जीवाणं । 30 तकम्म अरिहंता अरिहंता तेण वुर्चति ॥ [८२] ___ इसा वचनइतउ अष्टप्रकारु ज्ञानावरणादिकु कर्मु भावरिपु समानु हणइ तिणि कारणि अरिहंत कहियई। 20 844) 1 Bh. डंसादि-। 2 Bh.glosses it with डोलउ।846) 1 Bh.-पूजा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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