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$614 ). ८९०] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत
'२१९ असुरा १ नागा २ विज्जू ३ सुवन्न ४ अग्गी य ५ वाय ६ थाणिया य ७। उदही ८ दीव ९ दिसा १० वि य दस भेया भवणवासीणं ॥ [८९०]
तत्र-असुर निकाय माहि चउसटिलाख, नागकुमार निकाय माहि चउरासीलाख, । सुवर्णकुमार निकाय माहि बहत्तर लाख, वायुकुमार निकाय माहि छन्नवइलाख । द्वीपकुमार, दिसाकुमार उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार अग्निकुमार नामक छई छ निकाय तीह माहि छहत्तरि छहत्तरि । लाख शाश्वत चैत्य छई। एवंकारइ पूर्वोक्त सात कोडि बहत्तरिलाख शाश्वतचैत्य भवनपति माहि इसी परि हुयई । वानमंतर माहि असंख्यात शाश्वतचैत्य हुयई जो इसी माहि असंख्यात शाश्वतचैत्य हुयई । पृथ्वीतलि त्रिन्हि सहस्र पांचसई सतरह शाश्वतचैत्य भणिया छई। ऊर्ध्वलोकि चउराशीलाख सत्ताणवइ सहस्स वीसे करी अधिक शाश्वत चैत्य छई। तत्र सौधर्म देवलोकि बत्रीसलाख । ईशान देवलोकि अट्ठावीसलाख। सनत्कुमार देवलोकि बारहलाख । माहेंद्र देवलोक आठलाख। ब्रह्म देवलोकि चत्तारि-10 लाख । लांतक देवलोकि पंचास सहस्स । महाशुक देवलोकि चियालीस सहस्स, । सहस्रारु देवलोकि छ सहस्स । आनत देवलोक प्राणत देवलोक बिहुं चत्तारिसइं। आरण देवलोक अच्युत देवलोक बिहुँ त्रिन्हिसई।
हिट्टिमगे विज्जतिगे एक सउ इगारोत्तरु माज्झिमगे विज्जतिगे एक सउ सत्तोत्तरु । उवरिमगे विज्जतिगे एकु सउ विजय वेजयंत जयंत । अपराजित सर्वार्थ नामसिद्धि नामसु पंच पंचोत्तरेसु पंच सासय-15 चेयाण।
एवंकारइ पूर्वोक्त चउरासी लाख सत्ताणंवइ सहस्स त्रेवीसे करीअधिक शाश्वतचैत्य ऊर्द्धलोकि छई। एकि एकि चैत्यि गर्भगृह माहि अट्ठोत्तरुसउ अट्ठीत्तरुसउ जिनबिंब छई । एकि त्रिद्वार चैत्य, एकि चतुर्दार चैत्य छई।द्वारिद्वारि स्तूपगत चत्तारि चत्तारि जिनप्रतिमाछई। एवं सभा पुण त्रिद्वार छई। द्वारि द्वारि स्तूपगत चत्तारि चत्तारि जिनप्रतिमा छई। एवंकारइ असीसउ अससि जिनबिंब भवानि भवनि विमानि विमानि 20 छई। तथा पृथिवीगत पुण जि शाश्वत चैत्य छई तिहां पुण पूर्वोक्त साठि चैत्यगत चउवीस सउ चउवीस सउ जिनबिंब छई। बीजे सविहुं वीसउं सउ वीसउं सउ जिनबिंब छई। एवंकारइ सर्वत्रैलोक्यगत पनरह कोडि सइं बइतालीस कोड अठावनलाख सत्तसट्टि सहस्स चियालासे करी अधिक जिनप्रतिमा छई।
इति सोपहिं त्रैलोक्य शाश्वतचैत्य जिनबिंब संख्या कही । विस्तर प्ररूपणा स्तवनार्थईतउ जाणिवी। यथा--
'श्रीऋषभेति । श्रीऋषभ वर्द्धमान २ श्री चंद्रानन ३ श्री वारिषेण ४ इसां नामहं करी सर्वह जिनबिंब शाश्वतां वांदी करी । तीहं तणां भवन देवगृह । अनइ बिंब प्रतिमा। तीहं तणउं मानु संख्यानु । तेह तणइ अनुकीर्तनि सिद्धांतानुवादि करी ति जिनचंद्र एष हउँ ‘संस्तौमि' संस्तवउं कहउँ ।
'भवनपतीति । भवनपति व्यंतर ज्योतिष्क वैमानिक चतुर्विध देवनिकाय निवासह माहि । उपपात १ अभिषेक २ अलंकार ३ व्यवसाय ४ सौधर्माभिधान पांच पांच सभा छइं । तत्र उपपात सभा 30 माहि छई उपपातशय्या तीहं ऊपरि देव ऊपजइ । अभिषेकसभा माहि स्वर्णरत्न सिंहासनोपविष्ट देव रहइं सेवक देव तीर्थोदक सुगंधजलपूर्ण स्वर्णरत्नकलसहं करी अभिषेक करइं। अलंकारसभा माहि नानाविध निज पुण्यानुसारि स्वर्णरत्नमुक्तालंकार स्ववांछानुसारि पहिरई। व्यवसायसभा माहि रमणीय स्वर्णरत्नमय शाश्वत पुस्तक वाचई, देव नी स्थिति देव जाणई। सुधर्मासभा माहि सभा पूरी देव स्वकीया धिपत्यु भोगवई । एक एक सभा पूर्वदक्षिणोत्तर द्वारत्रय सहित छइ । द्वारि द्वारि मुखमंडपु १, अखाडा-35 मंडप सहितु प्रेक्षामंडपु २, मणिपीठस्तूपु ३, मणिपीठ धर्मध्वजु ४, मणिपीठ चैत्यतरु ५, पुष्करिणी ६, एवं नामक छ छ वस्तु छइं । स्तूपि स्तूपि चत्तारि चत्तारि जिनबिंव चतुर्दिग्विभागावस्थित छई। इत्यार्या चउ नउ अर्थ ॥४॥
8614) 'भवनपतीनां मध्ये ' इति । दसविध पूर्वभणित असुरादिक छई भवनपति । तहिं तणां निकायहं माहि । मणिमयतोरण मणिमयकलस ,गार सुवर्णमय ध्वजादिकहं करी उपलक्षित स्तंभ 40
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