SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ षडावश्यक बालावबोधवृत्ति [8601-602) ८४३-८४४ नामस्स गोयस्स य वीस सागरोवम कोडाकोडीओ आउयस्स तित्तीसं सागरोवमा पुष्वकोडी तिभागसहिया । नामगुत्ताणं जहन्ना दिई अहमुहुत्ता वेयणोयस्स बारसमुहुत्ता अंतोमुहुत्ता सेसाणं । टिबंधो सम्मत्तो । सुभासुभकर्मपुद्गलेसु जो रसो सो अणुभागो वुच्चइ । तत्थसुभेसु महुरो रसो, असुभेसु अमहुरो 5 रसो, तस्स बंधो अणुभागबंधो । अणुभागबंध विचारु गहनु छइ तिणि कारणि विस्तरी करी लिखिउ नहीं । अणुबंधो सम्मत्तो । _8601) पसा कमवग्गणा, खंधा तहिं तणउ बंधु, जीवप्रदेसहं सउं वह्नि लोह संबंध जिम अथवा खीर नीर संबंध जिम जु एकरूपता भवनु सु प्रदेशबंधु कहिया । तथा च भणितं - जीवकर्मप्रदेशानां यः सम्बन्धः परस्परम् । कृशानुलोहवद्वेतास्तं बन्धं जगदुर्बुधाः ॥ [ ८४३ ] सुपुण पृष्ट बद्ध निधत्त निकाचित करणभेदइतर चतुर्विधु हुयइ । समूहगत सूचिका समवाय जिम स्पृष्ट कर्मबंध: । दवरकबद्ध सूचिका संबंधवद्ध कर्मबंधः । वर्षांतारेत दवरकबद्ध सूचिका संबंधवन्नित्त कर्मबंधः । अग्निध्मात सूचिका समवायमेलवनिकाचित कर्मबंधः । अथवा कोरी भीति ऊपरि 15 चूर्ण पूर्ण पुट्टलिका खोटियइ तउ चूर्ण तणउ परागु भीति लागइ तिम जीवप्रदेसहं अनइ कर्मप्रदेशहं रहइं जु संबंधु हुयइ सु स्पृष्ट कर्मबंधु कहियह १ । 10 20 भीनी भीति' चूर्ण पुडलिका पखोडणि कीधइ हूंतइ भीति सूकी हुंती जु चूर्ण संबंधु भीति रह तेह' सरीख जीवप्रदेस कर्मप्रदेस संबंधु जु जुयइ सु बद्ध कर्मबंधु कहियइ २ । छोह टीप सरीखउ जीवकर्म प्रदेसहं रहई जु संबंधु सु निधत्त कर्मबंधु कहियइ. ३ । सर्व घोल छोह सरीखउ जीवकर्म प्रदेसहं रहई जु संबंधु सु निकाचितु कर्मबंधु कहिया ४ । एउ सगल्लू पूर्वभणितु संक्षेपार्ह प्रदेशबंधु कहिया । एह तणउं सविस्तरु स्वरूपु गहनु छइ तिणि काराण लिखिउं नही । 'पएसबंधो सम्मत्तो' । इति संक्षेपिहिं कर्म तणउ विचारु लिखिउ छइ । जु को विस्तरि करी कर्म विचारु जोयइ तिथि कर्मग्रंथ पढी, गुरु कन्हइ वखाणावी, अर्थु हिया माहि अवधारी करी सदा चीतविवउ । अनेराई श्रद्धा 25 नवंतहं भविकलो कहं आगिलई गमई सु निश्चित्तु जाणतां हूंतां कहिवउ । संशइ हूंतइ पुण कहिवउ नहीं - मिथ्यात्व प्ररूपणा भयइतउ । (602) अथ ' एवं अट्ठविहं' इत्यादि गाथा करी जु अर्थु कहिउ सोई जि अर्थ विशेष करी । कहइ । 30 कयपावो वि मणूसो आलोइय निंदिओ गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरुव भारवहो । [ ८४४ ] ' कय पावो वि' ईहां ' अपि ' शब्द अकृत पाप रहई संग्रहार्थ । तउ पाछइ इसउं अर्थु-जिणि थोडउं सउं पापु कीधउं हुयइ सु जिम ' अनुदरा कन्या' इसइ भणियइ' उदर पाखइ कन्या गमियइ । स पुण संभव नहीं तिणि कारणि 'तुच्छोदराकन्या ' गमियइ तिम संसारि प्राइहिं' अकृतपाप पुरुष संभवइ नहीं । पाछइ अकृतपापु इसइ भणियइ' तुच्छपापु पुरुष लाभइ । तउ पाछइ न पुण अकृतपापु तुच्छपापु 35 पुरुष कृतपापु विरचित प्रचुरपापु पुरुषु पुण गुरुसगासि आलोचितु । किसउ अर्थु ? जिम पापु की उं 601 ) 1 Bh. adds तिणि । 2 B. omits. 1 Bh. भणिइ । 2 B. प्राहीं । 602) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy