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________________ $583-584) ८३३-८३४]. श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत २०९ तथा कष् निकर्षे धातु पाछइ कषियइ चउंगति माहि षांचियइं प्राणिया जीव एह माहि । इणि कारणि कषु संसारु कहियइ । तेह तणउं आयुलाभु जीहं हूंतउ जीव रहइं हुयइ । इति कषाय क्रोध मान माया लोभ लक्षण चत्तारि कहियई। तथा पुण्यधन तणइ अपहरण करी जेहे प्राणी जीव दांडियइ ति असुभ मनवचनकायलक्षण त्रिन्हि अनर्थदंड कहियइं। अथवा मिथ्यादर्शन मायानिदान लक्षण त्रिन्हि दंड । तथा गुप्ति अशुभयोग निरोधरूप त्रिन्हि गुप्ति मनोगुप्ति वचनगुनि कायगुप्ति ईह नउ विचारु पूर्विहिं । लिखिउ छइ। समिति ईर्यासमिति प्रमुख पांच तीहं नउ अर्थ पुण पूाहिं लिखिउ छइ । चकारइतउ बीजाई सवहीं धर्मकर्महं तगइ विषइ निषिद्ध कर्मकरणादिकहं विषइ वा 'पडिक्कमे देवसिय सव्वं ॥ एतला पूर्वोक्तहं कर्त्तव्याऽकर्तव्यहं विषइ सव्वू सगलू देवसिउदिवसकृतु अजुक्तु पडिक्कमिङ, तेह हूंतउ निवर्त। 'जो अइयारो तयं निंदे' इति पाठांतरि पूर्वोक्तहं वंदनादिकहं विषइ जु अतीचारु सु निंदउं । आपसाखि 10 अयुक्तु कांधउं इसी परि निंदउं। $583) अथ सम्यक्त्व माहात्म्य दिखालिवा कारणि कहइ । सम्मद्दिट्ठी जीवो जइवि हु पावं समायरइ किंचि । अप्पोसि होइ बंधो जेण न निद्धंधस संकुणइ ॥ [८३३] सम्यक् अविपरीतु दृष्टि ज्ञानु जेह रहई हुयइ सु ‘सम्मट्ठिी' जीव प्राणी कहियइ। सु अनिर्व-15 हतउ हूंतउ 'जइ वि हु' जदपिर्हि निर्वाह तणइ कारणि पापु कृषि करणादिकु काई एकु समायरइ ‘जइ विहु ' ईहां 'हु' शब्द तथापि शब्द तणइ अर्थि छइ । तउ पाछइ ‘हु' किसउ अर्यु ! तथापिहिं पापसमाचरणिहिं। बीजा छई जि मिथ्यादृष्टि तीहं नी अपेक्षा करी 'अप्पोसि। अस्य एह सम्यगदृष्टि श्रावक रहइं अल्पु स्तोकु बंधु ज्ञानावरणादि कर्म तणउ संबंधु हुयइ । 'जेण न निद्वंधस संकुणइ । जिणि कारण निद्वंधसु निर्दय थिकउ न करई। 20 5584) ईहां सम्यग्दृष्टि नी अपेक्षा बीजा मिथ्यादृष्टि कहियई । जिम श्वेत नी अपेक्षा बीजउ कृष्णु कहियइ ति पुण गुणस्थानस्वरूपि भणियइ हूंतइ सम्यग् जाणियइ । तिणि कारणि गुणस्थान लिखियई। मिच्छे १ सासण २ मीसे ३ अविरइ ४ देसे ५ पमत्त ६ अपमत्ते ७। नियट्टि ८ अनियट्टि ९ सुहुमु १० वसम ११ खीण १२ सजोगि १३ अजोगिगुणा १४॥ [८३४] 25 गुण कहियई ज्ञानादिक तीहं तणा स्थान शुद्धि प्रकर्ष अशुद्धि अपकर्षभूमिभूत आत्मपरिणाम. विशेष गुणस्थान कहियई। ति पुण पूर्व पूर्व गुणस्थान कन्हा उत्तरोत्तर गुणस्थान विशिष्ट विशिष्टतर। शुद्धिप्रकर्ष अशुद्धि अपकर्षता करी हुयई । जइ किमइ को कहइ मिथ्यादृष्टि रहई ज्ञानादिकगुण छई नहीं। पाछइ तीहं रहई शुद्धि प्रकर्षु अशुद्धि अपकर्षु । तेऊ ज स्थान शब्द तणउ अधुं किसी परि तीहां घटइ इस न कहिवू । मिथ्यात्वमोहनीय कर्म प्रकृति भेद असंख्यात छई। तीहं माहि एक सर्वनिकृष्ट छइ । 30 एक सर्वोत्कृष्ट छइ । तत्र ज सर्वोत्कृष्ट स सर्व कृष्णतम छइ। ज सर्वनिकृष्ट स सर्व शुद्धतर छह । बीजी अंतराल वर्तमान सर्वनिकृष्ट तणी अपेक्षा करी अशुद्ध अशुद्धतररूप छई। तउ पाछइ जे सर्वनिकृष्ट छह तिणि, तेह आगिली प्रकृति छइ अशुद्ध, तेह तणी अपेक्षा करी शुद्धि प्रकर्षु छइ। अनइ अशुद्धि तणउ अपकर्ष छइ । तथा बीजी प्रभृति प्रकृति पुण त्रीजी प्रमुख प्रकृति तणी अपेक्षा करी शुद्धि प्रकर्ष अशुद्धि अपकर्षवंत जाणिवी । तउ पाछइ मिथ्यात्वि जीवहीं रहई जीह रहई निकृष्ट मिथ्यात्वप्रकृति तणउ उदउ छइ तीहं रहइं ज्ञानादिगुण शुद्धि प्रकर्षु अशुद्धि अपकर्ष छइ ॥ तथा च भणितं $582) 3 B. पाठांतरं । and drops the rest. $584) 1 B. drops upto तीहं रहई। ष. बा. २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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