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________________ $561-563) ८०७-८०८] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत २०१ निवारी। अथवा स्त्रीवसंगत निसत्त्व किसउं किसउं न समाचरई। सुमित्रा पुण तदाकाल इसउ आभिग्रहु मन माहि करइ । 'जे मू रहई प्राणमुक्ति हुयइ तो ई भोजनमात्रहीं दानि अकीधई हउं भोजनु करउं नहीं। आठ उपवास जउ सुमित्रा रहइं हूया, तउ पाछइ दुर्यशावाद शंकित हूंती जयां तेह नउ वृत्तांतु दत्त आगइ कहिउ । तउ पाछइ बंधुवर्ग सहितु दत्तु सुमित्रा रहई पारणा काराणि महा निबंधु करइ। तउ सुमित्रा पारणा करिवा कारणि उपवेशित हूंती चित्ति चीतवइ ।' अभोजनविषइ पात्रदानाभाव रूपु कारणु जाणतू' हूंतउ पुत्रु मू रहई दानु दिवारइ नहीं । धिग् धिम् ! माहरा कर्म विडंबन रहई ! जइ किमइ एह आपणा परीसिया भोजन माह कही-एक महऋषि रहई अथवा दयापात्र कही-एक रहई संविभागु करावउं तउ माहरउ अभिग्रहु भाजई नहीं। अपि तु श्लाघनीउ हूयइ । पुत्रु पुण्यवंतु अश्लाघ्यु न हूयई'। 8561) इसउं ध्यायती सुमित्रा रहई जिसउ मूर्तिमंतु पुण्यराशि हुयइ इसउ महामुनि एकु 10 गृहांगणि आगिलइ गमइ आविउ देखइ । तदाकालि रोमांच कंचुकित गात्र हूंती हर्षानुबिंदुवृष्टि नयन हूंती मूकती भाजनु बिहुं हाथे ऊपाडी करी सामुही ऊठी करी' महऋषि आगइ भणइ, " भगवन् महांतु अनुग्रहु मू ऊपरि करउ। पात्रु धरउ । प्रासुकेषणीउ आहारु विहरिउ ।” महासत्तु प्रासुकेषणीउ जाणी करी विहरइ । तउ तेह तणइ सत्वि करी संतुष्ट हूंती श्री शासनदेवता गंधांबुवृष्टि गृहांगाण करी प्रत्यक्ष होई करी कहइ । “ धन्ये ! मासोपवासी महऋषि जु तइं पारणउं कराविउ, तेह ताहरा सत्त्व प्रभा-15 वइतउ संभूतु जुदानधर्मु तेह तणा महात्म्यइतउ दुर्भिक्ष हेतुकग्रह उपशांत हूया।" इस गलगर्जितु करी देवि मेहु वरसाविउ । दुर्भिक्षु प्रवासाविउ । राजा आवी करी महामहोत्सवु करावइ । सकलु लोकु सनालिकेराक्षतपात्र पाणि दत्तमाता वधावइ । दत्तु जया सहित्तु पाए लागी सुमित्रा रहई खमावइ । ति त्रिन्हइ अथानंतरु उत्तरोत्तरु धर्मु समाचरी करी आपणपउं आयु संपूर्ण भोगवई। $562) तीही माहा सुमित्रा जीतु महाराज ! तउं हूयउ। दत्तात्मा जिनदासु ताहरउ मित्रु 20 हूयउ। जयात्मा रत्नवती जिनदास तणी युवती हुई । दानधर्मनिरोधइतउ ताहरा मित्र रहइं लक्ष्मी सांतर हुई" । इसी परि पूर्वभवु सांभली गुरु नमस्करी करी' राजादिक सकललोक नगरि गया। धर्मध्यानपर अतिविक्रमवंत राजेंद्र जिनदास रत्नवती जीव तिणिहिं जि भवि संयमु प्रतिपाली केवलज्ञानु ऊपार्डी मोक्षि गया। पात्रार्थया रचितया रमया सुमित्राश्रद्धया महानरवरेन्दिरया सहेह । लेभे महोदयरमापि तथा भवद्भिलभ्यत हन्त भविका भविकाम्यपुण्याः॥ [८०७] इति अतिथि संविभाग व्रतविषइ सुमित्रा कथा समाप्ता । $563) अथ अत्र विषइ जु रागादि भावि करी दीधउं तेह प्रतिक्रमिवा कारणि भणइ। 30 सुहिएसु य दुहिएसु य ज मे अस्संजएसु अणुकंपा। रागेण व दोसेण व तं निंदे तं च गरिहामि ॥ [८०८] संविभागवत प्रस्तावइतउ साधु अभाणयाई जाणिवा । तीहं साधु किसां विषइ। इत्याह8560) 4 P. omits. 5th. adds हूंतइ । 6 P. omits. 7 P. जाणतउ। 8 Bh. पूजइ। 5561) 1 P.omits.2 P. प्राशुके-1 3 B. P. -सुत्तु । 4 P. adds - उ । 5 Bh. omits. 6 Bh. दानु जु धर्मु । 7 P. देवे। 8 P. - पात्रि - । 8562) 1 Bh. तीहं। 2. Bh. हुउयउ । P. हुअउ । 3 P. हुअउ । 4 Bhomits. 5P. उपार्जी। 6 P. omits. ष. बा.२६ 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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