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________________ ____10 $482-483). ६३८-६४०] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत १६७ इसी प्रियतमाभाषा सांभली करी हर्षितु हूंतउ प्रभातिहिं जि समस्त लक्ष्मी सप्तक्षेत्रीं वेचइ। देह मात्रोपयोग्यु स्वल्पु धनु राहवी करी मध्यंदिनि जिनपूजा करी इस कहइ, " एक शृंगारसुंदरी भार्या, एक शय्या, बि वस्त्र पात्रु एकु, आहारु, दिन भोजन मात्रु मूंकी करी अपर समस्तवस्तु परिग्रहकरण नियमु । जिनेंद्र सेवा निमित्तु घणूं वस्तु धरउं"। इसी परि परिग्रहप्रमाणु करी समस्त दिवसु धर्मध्यानपरायण थिकउ नीगमइ । 'धन पारखइ प्रभाति किसी परि याचकमुख देखीसिइं? इणि कारणि रात्रि समइ लोकि सूतइ । हूंतइ देशांतरि गमनु करिवा युक्तु ' इस शृंगारसुंदरी सउं आलोची करी सूतउ । रात्रि प्रहरद्रय समइ देशांतरि चालिवा जउ ऊठिउ तउ घरु तिमहीं जि धन भरिउं देखइ । तउ विस्मयापन्न हूंत विद्यापति प्रियतमा प्रति भणइ,।" दसमइ दिनि आकर्षितइ जि हूंती श्री जाइसिइ, दस दिवस सीम दीयमानइ हूंती माहरा घर हूंती नहीं जाइ। तिणि कारणि 'धनदानु धनक्षयहेतु धन तणउं अदानु धनसंचय हेतु' इस मुग्धजन मुधा बोलई न याति दीयमानापि श्रीश्वेदीयत एव तत् । तिष्ठत्यदीयमानापि नोचेदीयत एव तत् ॥ [६३८] $482) इसी वार्ता तणइ विस्मयरसि: वर्तमानहं हूंतां तीहं रहई सूर्यु उगिउ । बीजइ दिनि पुणि तिमहिं जि लक्ष्मी सुपात्रि दे करी परिग्रह परिमाणु करी सूतउ । प्रभाति तिमहिं जि श्री देखा। वली तिमहिं जि ऋद्धि सुक्षेत्रि वावइ । इसी परि नव दिवस सीम करइ। इसु काई एकु सुपात्रु दानु प्रवर्त्ता- 16 विउं जिसइ कल्पद्रमाधि देवीं रहई पुण विस्मउ ऊपनउ । 'पूर्वपुण्यपयः पंकु' मुक्तिमागे रहई दूषकु श्री नउ पुरु मू रहइं प्रभाति शोषि जाइसिइ ' इसी परि हर्षपूरितु हूंतउ रात्रि सूतउ । स्वप्न माहि श्री आवी करी भणइ । “अहो महापुरुष ! ताहरां दानधर्महं करी दुष्टु देवु दूरि कीधउं हउँ जायती वली थाहरावी। अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव फलमश्नुते । इति मूक्तं त्वया कारि मतिसार यथातथम् ॥ [६३९] कदाचन न मुञ्चामि तदहं सदनं तव । यथेच्छं भाग्यभङ्गीभिरुत्सङ्गीकृत भुंश्व' माम् ॥" [६४०] तदाकालिहिं जि जागिउ हूंतउ भार्या आगई आगिलइ गमइ स्वप्नविचारु कहइ । प्रतिज्ञा निर्वाहनिमित्तु कहइ, “प्रियतमि ! भोगमात्रफलि श्री दानव्यसनिहिं जि हा ! माहरउ जन्म जाइसिइ ! 25 मुक्तिफलिं तपि किसी परि प्रवर्तिसु? कदाकालिहिं लोभलोलितु मनु नियम भंगु पुण' कराविसिइ ? तिणि कारणि श्री-पुरपूरितु मंदिरु मूंकी करी किणिहिं देशांतरि जाइयइ । तउ श्री ग्रहतई छुटियइ।" इसउं भार्यास आलोची करी जिनबिंब करंडिका ऊपाडी करी शृंगारसुंदरीमात्र परिवार हूंतउ घर हूंतउ' बाहिरउ नीसरिउ । पंचपरमोष्ठि नमस्कार समरणा करतउ नगरइतउ चालिउ । 483) नगरि एकि जाई करी सूतउ । तिहां अपुत्रु राउ विणठउ । प्रधानपुरुषे पांच दिव्य 30 अधिवासियां, जिहां विद्यापति हूंतउ तिहां आवियां । घोडई हेषारवु कीधउ, छत्रु आवी माथइ रहिउं, चामर बिहुंगमे ढलिवा लागां, पट्टहस्ति गलगर्जिकरणपूर्व तीर्थजलपूर्ण कलसे करी राज्याभिषेक करी भार्यासहितु ऊपाडी' करी शुडादंडि' करी कुंभस्थलि चडाविउ । तउ पाछइ मंत्रि सामंत मंडलेश्वरु विसरपरिवृतु राजा सौध ऊपरि आवतउ मन माहि चीतवइ । 'जिम पूनिम नउ चंद्रमा मेहपटल' हूंतउ 8481) 5 P. omits. 6 P. थकउ । 7 P. दशमइ । 8 P. आकर्षीतइ ! 9 P. दश । 10 B. omits. 8482) 1 B.-पया-। 2 B. adds it in the margin, I 3 B. omits P. हु। 4 P.मुंच । 5 B. omits. 6 P. पुणि। 7 P. श्रीग्रहतउ। 8 Bh. omits. 8483) 1 P. कलशे । 2 P. उपाडी। 3 P. शुंकादंडि। 4 Bh. gloss over विसरः समूह। 5 B. Bh. राज । 6P. पडल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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