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१६० षडावश्यकबालावबोधवृत्ति
[$464 ). ६१७-६२० धन्याकुक्षिसरोहंस! भाग्यसौभाग्यपात्र ! जनावतंस! मणिपुरु इसइ नामि पुरु छइ। तिहां पुण्यधरु गुणधरु इसइ नामि सार्थवाहु हूंत उ । सु अनेरइ दिनि विशदाभिधान मुनि समीपि वन माहि गयउ।
जन्तोः स्याद् दुःखदं द्रव्यहरणं मरणादपि । अतः सुकृतिभिः कार्य चौर्यचर्याविमोचनम् ॥
[६१७] एवमाकर्ण्य पुण्यात्मा स विद्याधरसंसदि । अदत्तादानविरतिं व्यधात्तत्र तदा मुदा ।
[६१८] पुर माहि आविउ हूंतउ व्यवसायनिमित्तु भूरि भांडसंभारु ले करी देसांतरि चालिउ। आपणा देस तणइ अंति सार्थि अटवी माहि पइठइ हूंतइ आपणपई सार्थवाहु घोडइ चडिउ आगइ थिकउ
जाइवा लागउ। पाछइ मार्गु मूंकी करी प्रौढ पदप्रचारि किणिहिं दांडइ पडिउ । सुवर्णलक्ष मूल्य रत्नावली 10 एक तिहां भुइं पतित देखइ । व्रतभंग भयवशइतउ वली बीजीवार तिणि गमइ दृष्टि अकरतउ हूंतउ
आघउ गयउ । सार्थ संचल भाव तणा अलाभइतउं 'किसुं साधु दूरि गयउ' इसी परि मन माहि शंका ऊपनी तउ पालइ सार्थवाहु आपणउ वाहु आघउ ऊतावलउ चलावइ खुरक्षुण्णि मार्गि स्वर्णपूर्ण त्रांबा नउ कुंभु देखइ । व्रतभंगइतउ तिमहिं जि मूकी करी आघउ गयउ । ऊतावला जायता हूंता सहसात्कारि वाहनवाहु मूयउ। पापभय भीतु चीतवइ 'मू वाहतां हूंतां एउ मूयउ हा हतोस्मि । जु को एह रहई 15 जीवाडइ तेह रहई एउ तुरंगमु हां आप। अनइ ऊपरि घणउं धनु आपउं' इस मन माहि चीतवतउ हूंतउ सार्थवाढु पादचारिहिं जि आघउ चालि3'। तृषाक्रांतु हूंतउ वृक्षशाखानिबद्ध वारिपूरित दीयडी देखइ । तउ अदत्तादानव्रतभंग बीहतउ ऊंचइ स्वरि करी कहइ, “कउण तणी ए दीयडी"? इसी परि वार वार भणतउ हूंतउ सांभली करी तीही जि तरु नी शाखा बाधउं छइ पांजरउं, तिहां छइ सूयडउ, तिणि भणिउं, “ वन माहि ओसही लेवा गयउ वैद्यपुत्रु तेह नी ए दीयडी। हउं तेह आगइ कांई नही 20 कह तउ शीतलु जलु पी", इसउं शुक तणउं वचनु सांभली करी कर्ण हाथे ढांकी करी शुक आगइ सार्थवाहु कहइ । “तृस वरि माहरा प्राण हरउ, पुण तोई वैधि अणदीधउं जलु पीयउं नहीं, महापापभय भावइतउ।" तउ पाछइ शुक नउँ रूप संहरी करी वृक्ष हूंतउ ऊतरिउ को एक वरु पुरुषु । सार्थवाह आगइ हर्षितु थिक' कहा।
464) “वैताढ्यि नामि पर्वति विपुला इसइ नामि नगरी। तिहां नउ हउं सूर्यु इसइ नामि 25 विद्याधरु । अनेरइ दिनि ताहरइ माणपूर इसइ नामि करी प्रसिद्धि नगरि विशदाभिधानु माहरट
जनकु विद्याचारण मुनिवरु उद्यानवनि समोसरिउं हूंतउ हउं तेह रहई वांदिवा तिहां आविउ। वांदी करी यथास्थानि बइठउ । तदाकालि मूं उद्दिसी करी महात्मा भणिउं ।
अनादानमदत्तस्याऽस्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामों हरता तं हृता हि ते ॥
[६१९] तथा
वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणाम् असाधुचरितार्जिता न पुनरूर्जिताः संपदः।
कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुंदरं, विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता॥ [६२०]
ताहरइ तउ धनु घणु आगे'छइ। किसइ कारणि परद्रव्यापहारु करइ”। इत्यादि चोरी परिहरण विषइ घणउं भणिउं । तथापिहिं हउं चौर्यव्यसनी फिटउ नंही। तइं पुणि मूं देखता तदाकालि
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8463) 3 Bh. gloss : सभायाम् । 4 P. omits. 5 Bh. अलाभयतउ। 6 Bh. किसउं। 7 Bh. गयउ। 8 P. omits -भंग। 9 P. थकउ।
8464) 1 Bh. omits. 2Mss. स्वयथु-। 3 Bh. घणूं । P. घणठ। 4 P. आगइ ।
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