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________________ 8401-8402). ५०७-५०९ श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत तथा संस्पृष्टाऽसंस्पृष्ट प्रथम बि भिक्षा वर्जी करी बीजी उद्वतादिक पांच भिक्षा तीहं नउं महु ग्रहणु। नियमा नियम सउं करेवऊं । पुनरपि दिनि दिनि बिहुँ भिक्षा तणउ अग्रहु अग्रहणु करेवउं । किसउ अर्थे । पांच भिक्षा माइतउ बिउंभिक्षा लेवा तणउं अभिग्रह इच्छानसारि करिवउ । बिई जि भिक्षा मई लेवी इसी परि तिहां ई एक भक विषद एक पानक विषा। एउ चउत्थादिकु परिहारकहं तणउ त। जि पुणि कल्पस्थितादिक पांच तीहं माहि एक वाचनाचार्यु चत्तारि अनुचारिया । ति पुणि इलों ही जि परि भिक्षा-5 भिग्रह सहित हूंता प्रतिदिनु आंबिलु करई। इसी परि छ मास सीम तपु करी पाछा जि पारिहारिक ति अनुचारक हुयई छ माल सीम । जि अनुचारक ति पारिहारिक हुयईछ मास सीमा पाछ कल्पस्थितु वाचनाचार्य छ मास सीम परिहार तप करइ । बीजा आठ जि पारिहारिक अनुचारक इता ती माहातउ एफ कल्पस्थितु वाचनाचार्यु हुयइ बीजा सातइ अनुचारक हुयई मास छ सीम । इसी परि अढारहे माले परिहार तपु पूजइ । एउ तपु तीर्थकर कन्हइ कीजई अथवा तीर्थकर कन्हइ जिणि कीधउं हुयइ तेह कन्हइ कीज 110 सातिशयश्रुतसंभवि कीजइ ३ सूक्ष्मसंपरायु दसम गुणठाणउं । तऊ जु चारित्तु सूक्ष्मसंपराय चारित्तु ४ यथाख्यात चारित्तु केवलज्ञानावस्थाभावि ५ र पांच चारित्र तींहं नइ मीलनि कीधर बावन अनइ पांच सत्तावन भेद संवर तणा हुयई।। $402) अथ निर्जरा अनइ बंधभेद लिखियई। बारसविहो तवो निज्जरा य बंधो य चउविगप्पो य । पगइ ठिइ अणुभाग पएसमेएहिं नायब्बो ॥ [५०७] बाह्यतपभेद छ अंतरंगतपभेद छ।' ए बारहविह निजरा । प्रकृतिबंधु १, स्थितिबंधु २, अनुभागबंधु ३, प्रदेशबंधु ४, इतिचतुर्धा बंधु । यथास्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । 20 अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशो दलसंचयः ॥ जेह कर्म न उ जिसउ स्वभावु सु तिसी परि बांधिया । एउ स्वभाबु बंधु ॥ यथा पड पडिहार सि मज्जा हडि चित्तकुलाल भंडगारीणं । जह एएसिं भावा कम्माण वि जाण तह भावा ॥ [५०९] 25 निर्मल इ दृष्टि पटि आवरी हूंती जिम देखइ कांई नहीं तिम ज्ञानावरणि आमरिउ हूंतउ जीवु ज्ञानमयि हूंतो ई जाणह कोई नही । इणि कारणि पट सद्गावु ज्ञानावरणु की। जिम पडिहारु जेह रहई माहि न मेल्हइ तेह रहई राजा देखणहारू हूंतउ देखइ नहीं तिम दर्शनावरणि करी आवरि । हूतउं जीयु सर्व वस्तु सामान्यज्ञानसद्भावू हुंतउ सामान्यज्ञान रहितु हुयइ। इणि कारणि पडिहारसद्भाबु दर्शनावरण कर्मु २। जिम मधुलिप्त तीक्षण खङ्गधारा जीभ करी लिहीती हूंती पहिलउं मधुरास्वाददायक हुयइ पाछइ छेगाधान 30 हेतु करी कष्टदायक हुयइ तिम सातवेदनीय कर्म सुखहेतु असातवेदनीय कर्म दुक्खहेतु हुयह तिणि काराणि मधुलिप्तखड्गधारासद्भावु वेदनीय कर्मु ३। [५०८] 401)6 B. omits. Bl. इसी परि। 8 Bh. omits छ मास सीम । $102) 1 Bh. puts छ initially in both the cases. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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