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________________ xv थे। इसलिये मुझे उन्होंने उक्त प्रकार का मीठा उपालम्भ दिया, उनके साथ मेरा बहुत वर्षों से घनिष्ठ सम्बन्ध था मैं जब पूना में भांडारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट्स के लिए कार्य कर रहा था, तब वे पूना के देश प्रख्यात डेक्कन कॉलेज में एक वरिष्ट प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे थे। तभी से उनके साथ मेरा विशिष्ट स्नेह सम्बन्ध हो गया था। प्रो. ठाकोर के साथ अनेक प्रकार की साहित्यिक चर्चा वार्ता के प्रसंग में उन्होंने अपनी यह इच्छा व्यक्त की, कि 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' गत गद्य रचनाओं पर भाषाकीय विश्लेषण रूप एक निबन्ध और विशिष्ट शब्द कोष तैयार करने का विचार है। इसलिए तरुणप्रभाचार्य कृत-'षडावश्यक बालावबोध' के रचना समय तथा उपलब्ध प्राचीन लिखित प्रति एवं ग्रंथकार के विषय में उपयुक्त जानकारी मांगी। मैंने उनसे एतदर्थक सब जानकारी दी और कहा कि में जेल से मुक्ति पाने के बाद इस पूरे ग्रन्थ को छपवाने का प्रबन्ध करना चाहता हूँ। सुनकर प्रो. ठाकोर बोले कि आप जब यहाँ से मुक्त होकर अहमदाबाद जावें तब मुझे सूचित करना जिससे मैं वहाँ आकर इस विषय में विशेष बातचीत करना चाहूँगा। जेल का समय पूरा होने पर मैं और श्री मुंशीजी दोनों ही एक साथ नासिक के सेंट्रल जेल के द्वार से बाहर निकले और साथ ही रेल द्वारा बम्बई पहुँचे। उस समय मुंशीजी सान्ताक्रुझ में रहते थे, हम दोनों वहाँ पहुँचे। मुंशीजी की पूजनीया माताजी ने हमारा स्वागत किया। मैं उनके साथ दो-तीन दिन वहाँ रहा और उसी समय अन्धेरी में जाकर, जिस संस्था की स्थापना की कल्पना जेल में बैठे कर रहे थे उसके लिये उपयुक्त जगह की भी तलाश की। दो-तीन जगह भी देखी गई। मुंशीजी चाहते थे कि महीने दो महीने में ही यह नूतन संस्था शुरू कर दी जाय। उसके लिये अपेक्षित रकम कैसे प्राप्त की जाय इसकी भी कुछ रूपरेखा उन्होंने आलेखित कर ली और मुझे भी उसमें शीघ्र ही सम्मिलित होकर कार्यारंभ करने का आग्रह किया। मैं वहाँ से फिर अहमदाबाद अपने स्थान पर पहुंचा। शांतिनिकेतन में सिंघी जैन ज्ञानपीठ की स्थापना तथा सिंघी जैन ग्रन्थमालाका कार्यारंभ दो-तीन महीने अहमदाबाद रहना हुआ इस बीच में कलकत्ता से स्व. श्री बहादुर सिंहजी सिंधी का आग्रहपूर्वक आमंत्रण मिला और जेल जाने के पहले शांति निकेतन जाने का और वहाँ पर सिंधी जैन ज्ञानपीठ स्थापित करने का जो बहुत-सा विचार विनिमय होकर एक संकल्प सा हो गया था। तदनुसार १९३१ के दिसम्बर महीने में अहमदाबाद से अपने आश्रम के कुछ छोटे-बड़े साथियों को लेकर मैं शांतिनिकेतन पहुँचा। वहाँ पर सिंधीजी की विशिष्ट साहित्य प्रियता एवं उदारता के कारण सिंघी जैन ज्ञानपीठ और सिंघी जैन ग्रन्थमाला की नूतन स्थापना की। क्रमशः सिंघी जैन ग्रंथमाला में अनेकानेक ग्रन्थों के सम्पादन और प्रकाशन की योजना हाथ में ली, उसके परिणाम स्वरूप जैन साहित्य के अनेक विशिष्ट ग्रन्थ प्रकाश में आने लगे। ग्रन्थमाला में प्रकाशित किये जानेवाले ग्रन्थों की विशाल नामावली में प्रस्तुत ‘षडावश्यक बालावबोध' ग्रन्थ का भी समावेश किया गया। क्योंकि इसकी प्रेस कॉपी जो मैंने अहमदाबाद में पुरातत्त्व मंदिर में रहते हुए करवाई थी वह मेरे संग्रह में सुरक्षित थी। बाद में सन १९३९ में मुंशीजी के विशिष्ट प्रयत्न से उसी पुरानी योजना और कल्पना (जो हमने नासिक की सेंट्रल जेल में बैठकर सोची और जेल में से निकले बाद अन्धेरी में संस्था के लिये जगह आदि की जो देखभाल कर रखी थी) तदनुरूप भारतीय विद्या भवन की नूतन स्थापना का शभारंभ हआ। श्री मुंशीजी ने प्रारंभ ही से मुझे इसमें संलग्न होने के लिए सौहार्द भरा आग्रह किया। मैंने उनके उत्साह, सामर्थ्य, व्यक्तित्व, प्रतिभा आदि अनेक विशिष्ट गुणों के कारण आकृष्ट होकर यथा योग्य इस नूतन भारतीय विद्या भवन के कार्य में अपनी सेवा देने को तत्पर बना। कार्य के उद्देश्य और गौरव को लक्ष्य कर मुंशीजी ने मुझे उसका सम्मान्य नियामक (आनरेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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