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________________ 15 ११४ पडावश्यकबालावबोधवृत्ति [375-8376 ). ४२२-४३० पुव्वुप्पन्ना रोगा पसमंति य ईइ-वेर-मारीओ। अइवुहि अणावुट्ठी न होइ दुभिक्ख-डमरं वा॥ [४२२] जिणि देसि तीर्थंकर विहरई तिणि देसि पंचवीसासयजोयण माहि पूर्वोत्पन्न रोग उपसमई निवर्त्तई । एउ त्रीसउ अतिसउ । ३ । ईति मूषकशलभादिक तीहं नी निवृत्ति चउथउ अतिसउ। ४ । वैरनिवृत्ति पांचमउ अतिसउ । ५ । मारिनिवृत्ति छट्ठउ अतिसउ । ६। अतिवृष्टि निवृत्ति सातमउ अतिसउ । ७ । अनावृष्टि निवृत्ति आठमउ अतिसउ । ८ । दुर्भिक्षनिवृत्ति नवमउ अतिसउ । ९ । डमर अशिव तीहं नी निवृत्ति दसमउ अतिसउ। १० । . देहाणुमग्गलग्गं दीसइ भामंडलं दिणयराभं । एए कम्मक्खयया सुरभत्तिकया इमे चऽने ॥ [४२३] 10 देहाणुमग्गलग्गं ति । देह पाछइ वर्त्तमानु दिनकरमंडलानुकारु भामंडलु देखियइ । एउ इग्यारमउँ अतिसउ ११ । एए कम्मक्खयया इति ए इगार अतिसय कर्मक्षयज कहियई कर्मक्षय हूंता हूयई इत्यर्थः । F375) सुरकया इमे चऽन्ने इति । सुर देव तेहे भक्ति करी कृत इमे जि आगइ कहीसिई ति इमे कहियई, अन्ने अनेरा इगुणवीस संख्य । तथा हि-- चकं छत्तं रयणज्झओ य सेय वर चामरा पउमा। चउमुह पायार तियं सीहासणं दुंदुहि असोगो॥ [४२४] कंटय हिट्ठाभिमुहा ठायंति अवट्ठिया य नहरोमा । पंचेव इंदियत्था मणोरमा हुँति छच्च रिऊ॥ [४२५] गंधोदयवासं वासं कुसुमाण पंचवन्नाण । सउणा पयाहिणगई पवणऽणुकूलो नमंति दुमा । [४२६] भवणवइ वाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य । चिदंति समोसरणे जहन्नयं कोडिमित्तं तु ॥ [४२७] इंतेहि य जंतेहि य बोहिनिमित्तं तु संसयत्थीहिं । अविरहियं देवेहिं जिणपामूलं सयाकालं ॥ [४२८] चउरो जम्मप्पभिई इकारस केवले समुप्पन्ने । नवदस य देवजणिए चउतीसं अइसए वंदे ॥ [४२९] चउतीस जिणाइसया एए मे वनिया समासेणं । दितु मं जिणवसहा सुयनाणं बोहिलाभं च ॥ [४३०] $376) चक्कं धर्मचक्रु आकाशगतु आगइ थिकउं सांचरतउं स्वर्णरत्नविनिर्मितु जिसउं मूर्तिमंतु ज्ञानु हुयइ इसउं देव करई । एउ पहिलउ देवनिर्मितु अतिसउ १ । श्वेतु छत्र त्रउ त्रैलोक्याधि30 पत्यसंसूचकु आकाशगतु मस्तकोपरि वर्तमान स्वर्णरत्नदंडु स्थूलामलकप्रमाण मुक्तावचूलु जिसउ सनक्षत्रु आश्विनी कार्तिकी वैशाखी पूर्णिणमा चंद्रमंडलत्रउ हुयइ तिसउ देव करई । एउ बीजउ अतिसउ २ । योजनसहस्रसमुच्छ्तुि स्वर्णरत्नमयदंडु क्षुद्रपताकाशतसंकुलु मणिकिंकिणी वाण वाचालित दिक्चक्रवालु पुरोभागगगनगतु सह संचरिष्णु। महांतु श्रीकांतु रत्नध्वजु देव करई । एउ त्रीजउ अतिसउ ३ । उभयपार्श्वहं श्वेत वर चामर स्वर्णरत्नदंड सह संगत आकाशगत ढलतां देव करई । एउ चउथउ अतिसउ ४ । 8374) 2 B. मूखक-। 3 Bh. इग्गार-। 20 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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