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________________ 8345 - 8348 ) ३७४ - ३७५ ] श्री तरुणप्रभाचार्यकृत १०५ ((( 345 ) तथा साधु पर्युपास्तिफलु पुणि चीतवियइ । साहूण वंदणेणं ति साधु तणइ वंदणि नमस्करणि कीजतइ हूंतइ असंकिया भावा असंकित भावइतउ संदेह पाखइ नासइ पावं पापु नासइ । अत्र कृष्णु दृष्टांतु । तथा साधु रहई प्रासुकेषणीय अन्नपानादि दानि कीधइ हूंतइ निज्जर पूर्वबद्ध अशुभकर्म तणी निर्जरा क्षिपणा हुइ । तथा उवग्रहो नाणमाइणंति ज्ञानादिक जि गुण साधु तणइ आधारि छई तीह उप उपष्टंभु आधारु कीधउ हुयइ । इसी परि साधुसेवादि अनुमोदना करी भणियइ | 5 छत्थो इति । जिम समुद्रि कल्लोलसंख्या आकाशि तारकसंख्या करी न सकियई तिम छउमत्थ जीव रहईं किसउ अर्थ ? जां सूक्ष्म संपरायगुणठाणइ जीवु न जाई तां प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानकहं वर्त्तइ, साधु नी अपेक्षा करी श्रावक पुणि देसविरति सम्यग्दृष्टि गुणठाणइ वर्त्तइ तर पाछइ चित्त रहईं चपलता लगी एक मुहूर्त माहि जि के जीव रहई असुभ परिणाम नीपजई तींहं नी संख्या पुणि जीवु करी न सकई, इणि कारणि भणियइ छउमत्थो छद्मस्थु जीवु कित्तिय मित्तं पि केतलउं पापु सांभरइ समरइ । तिणि कारणि 10 सांभरइ समरइ जं च न संभरामि अहं । जु पापु हउ न सांभरूं समरउं नहीं मिच्छामि ह दुक्कडं तस्स । तेह सांभरताई अनइ असांभरताई पाप तणउ दुष्कृतु मिथ्या विफलु हुउ । 1 ((346) इसी परि सामान्यहिं सामाइकशुद्धि करी विशेष सुद्धि निमित्तु भणियइ । जं जं तिजं का अभु मनिकरी चीतविडं, जं कांई अशुभु वाया करी वचनि करी भासिउं कहिउं । जं कांई असुभु का करी कीधरं तेह तणउं दुष्कृतु मिध्या हूउ । इसी परि सामाइक तणी विशेषसुद्धिकरणपूर्वकु 15 सामाइकु पारी करी पुनरपि प्रमादभावरिपु तणउ अविश्वासु मन माहि धरतां सर्वजीव मिथ्या दुष्कृतु दे करी सामाइय पोसहसंटियस्स जीवस्स जाइ जो कालो । सो सफल बोधव्वो सेसो संसारफलहेऊ ॥ [ ३७४ ] (( 347 ) अथ पोसहपारणा विधि लिखियइ । संपूर्ण पौषधकृते सति एक खमासमणि भणियइ $ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् । मुहुपत्तियं पडिलेहेमि' बीय खमासमणु दे करी मुहुंती पडिलेही एक खमासमणि भणियइ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसहं पारावेह, 'पुणोवि कायव्वं' इस कथन गुरि कहि हूंत बी खमासमणि भणियइ 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसहं पारावेमि' । गुर 'आयारो न मुत्तव्य' इसइ कहिइ' हूंतइ 'इच्छं' भणनपूर्वकु तइय खमासमणु दे त्रिन्हि नमस्कार कहि 125 इति पोसह पारणाविधि । इत्यादि भावना भावियई । (348) पडिकमणउं सामाइककरणपूर्वकु कीजइ तिणि कारणि पहिलं सामाइकसूत्र बखाणु लिखियइ | ‘करेमि भंते सामाइयं' इत्यादि । 'करेमि' करउं शिष्य नी ए प्रतिज्ञा । 'भंते' भदंत पूज्य भगवन् वा । `भयांत वा सप्तविधभय अंतकारक । भवांत वा चतुर्गतिरूप संसारनिवारक । इसी परि भंते एह अर्थपुर्ण गुरु तणउं आमंत्रणु गुरु अनुज्ञातु सर्व करिवउँ । इसा अर्थ रहई जाणाविवा निमित्तु 30 पाछ इस अर्थ - हे भंते ! भगवन् ! गुरो ! सम समस्तज्ञानादिकगुण तींहं नउ आयु लाभु समायु कहियइ । तिणि समायि हूंतइ हुयइ इति सामायिक कहियइ । यथा Jain Education International जो समोसव्वभू तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं हुजा इय केवलिभासियं ॥ (347) 1 Bh. पारेमि । 2 Bh. कहियइ । 3 Bh. कहियई । ष० बा० १४ For Private & Personal Use Only 20 [ ३७५ ] www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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