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________________ xiii सन १९२८ के प्रारंभ में मेरा विचार जर्मनी जाने का हुआ और उसके लिए मैंने, गुजरात विद्यापीठ से दो साल की अनुपस्थिति की स्वीकृति के लिये, महात्मा गांधीजी से निवेदन किया और उन्होंने मुझे सहर्ष एवं सोत्साह वैसा करने की अनुमति प्रदान की। साथ ही उन्होंने कृपा करके अपने यूरोपियन मित्रों को उद्दिष्ट कर अपने हस्ताक्षरों से अंकित एक संक्षिप्त सिफारसी पत्र भी मुझे प्रदान किया। सन् १९२८ के मई महीने के अन्तिम सप्ताह में पी. एण्ड ओ. कम्पनी की स्टीमर द्वारा मैंने युरोप के लिये प्रस्थान किया। पेरिस और लन्दन की युनिवर्सिटियों और ब्रिटिश म्युज़ियम आदि का अवलोकन करता हुआ हालैंड और बेलजियम की कुछ विशिष्ट संस्थाएँ देखता हुआ, अगस्त महीने में जर्मनी के प्रख्यात बन्दरगाह हाम्बुर्ग में पहुँचा। वहाँ पर मेरे कई सम्मान्य जर्मन विद्वान मित्रजैसे कि डॉ. हर्मन याकोबी, प्रो. फोनग्लाजेनाप, प्रो. ओट्टोश्रायडर, प्रो. शुबिंग, डॉ. आल्सडोर्फ आदि विद्वानों से मुलाकातों करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । दुःख के पास लिखना पड़ता है कि इन विद्वानों में से प्रो. आल्सडोर्फ के सिवाय आज कोई विद्यमान नहीं है। ___ हाम्बुर्ग युनिवर्सिटी में इण्डोलोजी (भारतीय ज्ञानविज्ञान) विषयक शिक्षापीठ के अध्यक्ष प्रो. शुब्रिग थे, जो सन् १९२६ में अहमदाबाद स्थित हमारे गुजरात पुरातत्त्व मंदिर का कार्य निरीक्षण करने के लिए आये थे। उनके साथ वहाँ पर प्रायः चार महीने व्यतीत किया। उनके शिष्यों में डॉ. ओल्सडोर्फ तथा डॉ. तबाड़िया (जो गुजरात के पारसी कौमके एक रिसर्च स्कॉलर थे और खासकर गुजराती भाषा के अध्ययन, अध्यापन एवं संशोधन कार्य का उच्च ज्ञान प्राप्त कर रहे थे), आदि पाँच-सात रिसर्च स्कॉलर जिनमें कुछ जर्मन बहिने भी थी-काम कर रहे थे। डॉ. आल्स डोर्फ अपभ्रंश भाषा साहित्य का विशेष अध्ययन एवं संशोधन सम्पादन आदि कार्य कर रहे थे । डॉ. तवाड़िया भी जो गुजराती भाषा एवं साहित्य का विशिष्ट अध्ययन कर रहे थे के साथ प्राचीन गुजराती भाषा साहित्य विषयक चर्चा होती रहती थी। प्रसंगवश मैंने प्राचीनतम गुजराती गद्य साहित्य का जब परिचय कराया तो उसमें प्रस्तुत तरुणप्रभाचार्यकृत 'षड़ावश्यक बालावबोध' का भी परिचय विशेष रूप से कराया। चूंकि डॉ. तवाड़ियाने मेरी सम्पादित 'प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ' नामक पुस्तक का अच्छी तरह अवलोकन किया था। और उनके पास मेरी वह पुस्तक भी रखी हई थी। प्रसंगवश मैंने उनसे कहा कि जब मैं जर्मनी से वापस लौटकर अपने स्थान गुजरात पुरातत्त्व मंदिर पहुँचूंगा तब इस पूरे ग्रन्थ को छपवाने का प्रबन्ध करूँगा इत्यादि। प्रो. डॉ. शुबिंग अपने समय के जर्मन विज्ञानों में जैन साहित्य के सबसे बड़े अभ्यासी और उच्च कोटि के मर्मज्ञ विद्वान थे। प्राकृत और संस्कृत, अपभ्रंश भाषा के अतिरिक्त प्राचीन गुजराती तथा हिन्दी भाषा के भी ज्ञाता थे। प्राचीन गुजराती गद्य-पद्य वे अच्छी तरह समझ लेते थे और मुझसे उनका आग्रह था कि मैं उन्हें जो पत्र लिखू वह गुजराती में ही लिखा करूं। उनसे भी प्रसगवश प्रस्तुत षड़ावश्यक बालावबोध' ग्रन्थ का परिचय मैंने उनको कराया और वे इन सब बातों को बराबर नोट करते रहे। हाम्बर्ग से दिसम्बर में मैं बलिन गया और वहाँ पर मुझे युनिवर्सिटी में भारतीय विद्या संस्कृति के प्रधानाध्यापक तथा जर्मन ओरिएंटल सोसायटी के अध्यक्ष विश्वविख्यात गोहाइमराट डॉ. हाईन्रीस ल्युडर्स तथा उसकी विदुषी पत्नी डॉ. एल.जे. ल्युडर्स, डॉ. वाइबगेन आदि अनेक विद्वानों से परिचय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी तरह जर्मनी के विश्व विख्यात, वर्ल्ड पोलिटिक्स के महान् आचार्य, जर्मन साम्राज्य की पोलिटिकल एकेडेमीके अध्यक्ष, प्रो. फोनसुल्स गेवेनित्स जैसे महान् राजनीतिज्ञ आदि अनेक विद्वानों का भी यथेष्ट परिचय प्राप्त करने का सुअवसर मिला। फोनसुल्स गेवेनित्स अपने समय के संसार के एक राजनीतिशास्त्र के महान् शिक्षा गुरु थे। उनको भारत की तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति का भी बहुत कुछ परिज्ञान था। इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ विद्वान और नेता प्रो. हेरल्ड लास्की जैसे उनके प्रिय शिष्यों में से थे। उनके साथ महात्मा गांधीजी द्वारा चलाई जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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