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________________ 8224 - 8227 ). २२३-२२८] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत जिणि विहरियइ स पेटावृत्ति ५ । अर्द्धसमचतुरस्र श्रेणिस्थितहं घरहं जिणि विहरियइ स अर्द्धपेटावृत्ति ६ । जिणि माह हूंतां बाहिरि विहरी आवियइ स अभितरसंवुक्का ७ । जिणि बाहिर हूंतां माहि विहरी आवियइ स बहिःसंवुका ८ । 'एलुगविक्खंभमत्तगहणं च' इति । एलुकु तूंबडउं सु विक्खंभी करी। किसउ अथु । जां सु आपणइ भावि फासुउ हुयइ तां तिहां रही मात्रग्रहणु करइ । 'सग्गामि परग्गामे' इति । एतले घरे विहरिसु, आपणेई गामि अनइ अनेरेई गामि, एवमादि क्षेत्राभिग्रहु । __काले अभिग्गहो पुण आई मझे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइ काले आई बिइ मज्झयं तइयं ॥ [२२३] जिणि देसि ज भिक्षावेला प्रसिद्ध हुयइ तिणि देसि तेह भिक्षावेलातउ आदिहिं मध्यि अवसानि काल विषउ भिक्षाभिग्रहु । तथा हि- भिक्षाकालि अप्राप्ति हूंतइ भिक्षा भमतां हूतां पहिलउ अभिग्रहु, मध्यि भिक्षा तणइ समइ हिं जि भिक्षा भमतां हूतां बीजउ अभिग्रहु, अंति भिक्षाकालावसानि भिक्षा 10 भमतां हूंतां त्रीजउ अभिग्रहु । एवमादि कालाभिग्रहु । उक्खित्तमाइ चरगा भावजुया खलु अभिग्गहा हुंति । गायंतो य रुयंतो जं देइ निसन्नमाई वा ॥ [२२४] 'उक्खित्तमाइ चरण' त्ति । भाजन हूंतइ पिंडि उत्क्षिप्ति ऊपाडियइ हूंतइ चरई जि भिक्षा भमई ति उत्क्षिप्तचरक कहियई। तथा भोजनादि थानकि निक्षिपियइ पिंडि हूंतइ जि चरइं भिक्षा भमई ति 15 निक्षिप्तचर कहियइं। तथा 'गायंतो' इत्यादि । गानु करतउ, रोदनु करतउ अथवा 'निसन्नमाई वा' निषण्णु बइठउ थिकउ 'आदि'शब्दइतउ सूतउ हूंतउ वा एवमादिकु दायकु जु देउ दातव्यु वस्तु दियइ सु लियइ एवमादि भावाभिग्रहु । $ 224) रस दुग्धादि विगइ तींह नउ त्यागु वर्जनु रसत्यागु कहियइ । $225) काय तणउ क्लेशु शास्त्र तणइ अविरोधि करी बाधनु नानाप्रकारु कायक्लेशु। 20 तथा च भणितं वीरासणउकुडगासणाइ लोयाईओ य विन्नेओ। कायकिलेसो संसारवासन्निव्वेयहेउ त्ति ॥ [२२५] वीरासणाइसु गुणा कायनिरोहो दया य जीवेसु । परलोगमई य तहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं ॥ [२२६] 25 निस्संगया य पच्छा-परकम्मविवजणं च लोयगुणा । दुक्खसहत्तं नरगाइभावणाए य निव्वेओ ॥ [२२७] $226) अथ संलीनता लिखियइ-संलीनता गुप्तता, स पुणि इंद्रिय-कसाय-योगविषया विविक्तशयनाऽऽसनता च इति चउं भेदे । तदुक्तं इंदिय-कसाय-जोए पडुच्च संलीणया मुणेयव्वा । तह य विवित्तच्चरिया पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ [२२८] $227) तत्र श्रवणेंद्रियि करी मधुराऽमधुरादि शब्दहं विषइ रागद्वेष तणउं अकरणु श्रवणेंद्रियसंलीनता । यदाह $223) 2 Bh. अनेरइ। 3 B. omits the verse. 225) 1 Bh. अवरोधि । 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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