________________
५७
8156 - 159 ). १९५-१९७] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत साध्वी रहइं संभवइ, श्रावक श्राविका रहई न संभवई । 'काउसग्ग' इति । विगइनियमग्रहणादिनिमित्त छ। काउसग्गु तेह कारणि वांदणउं साधु रहइं संभवइ, श्रावक रहइं पुणि यथासंभवु जाणिवउं । अपराधक्षामणा श्रावकही रहइं संभवइ इति तिहां वांदण श्रावकहीं रहई संभवइ । प्राघूर्गकवंदनु आलोचना वंदनु श्रावकही रहइं घटइ । भक्तार्थी हूंतउ किणिहिं कारणि अभक्ताथु प्रत्याख्यानु करइ सु संवरणु अथवा दिवसचरमु संवरणु तेह निमितु वांदणउं श्रावकहीं रहई संभवइ । उत्तमाथु अंतसंलेखना भवस्स चरमरूप । तेह निमित्तु वांदणउं श्रावकहीं रहइं घटइ। 8156) दोष छ यथा
माणो १ अविणय २ खिंसा ३ नीयागोयं ४ अबोही ५ भववुड्डी। अनमंतस्स छ दोसा एवं अडनउयसयमहियं ॥
[१९५] $157 ) विनयादिक छ गुण वांदणा तणा पूर्विहिं भणिया। अनेरउं पुणि वांदणा नउं फलु 10 उत्तराध्ययनसिद्धांत माहि सांभलियइ । तथा हि
(प्र-) वंदणएणं भंते ! किं जणइ ? ।
(उ - ) गोयमा ! वंदगएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ । उच्चागोयं कम्मं बंधइ । सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ । दाहिणभावं जणइ । $158) अथ अनंतरु वंदनकसूत्रु वखाणियइ ।
15 आयप्पमाणमित्तो चउदिसि होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुनायस्स सया न कप्पए तत्थ पवेसिउं ।।
[१९६] इसा वचनइतउ आत्मप्रमाणभूमि माहि गुरु तणी आज्ञा पाखइ पइसिवा कल्पइ नहीं, तिणि कारणि गुरु हूंतउ अहूठे हाथे वेगलउ आगइ ऊभउ होई 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निस्सीहियाए मत्थएण वंदामि' इसउं भणी 'भगवन् । मुहपत्तियं पडिलेहेमि' इसउं कही पुनरपि 20 खमासमणु दे करी विधिवत् मुहंती पडिलेहइ । तउ पाछइ ऊभउ अवनतोर्द्धगात्रु होई करी हाथि ओघउ मुहुंती मुह आगइ धरी करी भणइ 'इच्छामि' इत्यादि । 'इच्छामि' ईछउं-अभिलखउं-बांछउं । 'खमासमण' क्षमाश्रमण-क्षमाप्रधान श्रमण दशविध श्रमणधर्मसहित ! इस वंदनीक गुरु तणउं संबोधनु, हे क्षमाश्रमणसद्गुरो!। 'वंदिउं' वांदिवा । किसइ करी ? 'जावणिज्जाए' जपियइ कालु खपियइ इणि करी इति जापनीया उत्थान । उपवेसनकरणसमर्था । स कउण ? 'निस्सीहियाए' निषेधु पापव्यापारपरिहारू प्रयोजन 25 जेह रहइं स नैषधकी तनु तिणि करी । एतलइ 'इच्छ' इसउं प्रथम स्थानु । यथा
इच्छा य १ अणुन्नवणा २ अव्वाबाहं ३ च जत्त ४ जवणा य । अवराहखामणा ६ वि य छ हाणा हुंति वंदणए ।
[१९७] शिष्यि एतलइ भणिइ हूंतइ जइ गुरु व्याक्षिप्तु हुयइ तउ भणइ संक्षेपिहिं वांदि । आवश्यकचूर्णि अनइ वृत्ति माहि पुणि 'त्रिविधेन मनवचनकायहं करी संक्षेपिहिं वांदि' इसउं भणिउं । तउ शिष्यु 30 संक्षेपिहिं वांदद।
$159 ) अव्याक्षिप्तु पुणि 'छंदेण' इसउं भणइ इति पहिलउं गुरुवचनु । यथा8155) 2 Bh. drops ग्रहण ।
प. बा०८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org