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षडावश्यक बालावबोधवृत्ति
[ $123 - 8127 ). १५२
$ 123 ) अथ प्रस्ताव इतर वाइणि देवा तणी रीति लिखियइ । एक खमासमणि वाइणि 'मुहुपत्तियं पडिलेहेमि' कहावियइ | बीजडं खमासमणु दिवारी मुहुंती पडिलेहावियह बांनणां' बि दिवारियई । पाछइ एक खमासमणि पंचमंगल महाश्रुतस्कंध वाइणि पडिगाहणत्थं काउस्सग्गं करावेह " कहाविrs | बी खमासमणि 'पंचमंगल महासुयक्खंध वाइणि पडिगाहणत्थं काउस्सगं करेमि' कहा5 वियइ । तइय खमासमणदाणपूर्वकू 'अन्नत्थूससिएणं' इत्यादि कहावी काउस्सग्गु करावियइ । काउस्सग्ग माहि 'सागरवरगंभीरा' सीम, सत्तावीस ऊसास 'लोगस्सुज्जोयगरे' चीतवावियइ । पारियइ हूंतइ 'लोगस्सुज्जोय गरे' संपूर्ण भणावियइ । पाछइ एक खमासमणि पंचमंगल महासुयक्खंध वाइणि पडिगाहणत्थं चेयाई वंदावेह' भणावियइ । बीय खमासमणि 'पंचमंगल महासुयक्खंध वाइणि पडिगाणत्थं वासक्खेवं करावेह' भणावियइ ।
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10 $124) तइय खमासमणु दिवारी वासक्षेषु कीजइ । शक्रस्तवु भणावी एक खमासमणि 'पंचमंगलमहासुयक्खंध वाइणिं संदिसावेमि' कहावी बीय खमासमणि 'पंचमंगलमहासुयक्खंध वाइणिं पडिगाहे मि' कहाव पहिलउं त्रिन्हि नमस्कार कहावियइ, पाछइ पूर्व भणित' वाइणिक्रमि वाइणि दीजइ ।
$125) अथ प्रस्तुतु कहियइ । काउस्सग्गि पारियइ वैयावृत्यकरस्तुति' कही करी पूर्व जिम गोडहिलियां होई करी शक्रस्तव कहीयइ । ' जावंति चेइयाई' इत्यादि गाह पढइ । जावंति जेतलां, 15 चैत्य ऊर्ध्वलोकि अधोलोकि तिर्यग्लोकि छई, 'सव्वाई' सगलाई, 'ताई' ति बांदउं 'इह संथो' ईहां थिकउ 'तत्थ संथाई' तिहां थिकी । तर पाछइ ऊठी करी क्षमाश्रमणु विधिवत् दे करी 'जावंति के वि साहू' इत्यादि गाह पढइ । 'जावंति के वि' जेतलां केई, 'भरह - एरवय-महाविदेहे य' पांच भरत पांच एरवत पांच महाविदेहरूप पनरह कर्म्मभूमि माहि, साधु ज्ञान-दर्शन- चरित्ररूप रत्नत्रय साधक छई, 'सव्वेसु तेसु पणओ' सवहीं तींहं विषइ प्रणतु हउं छउं । ति पुणि किसा छई ? 'तिविहेण' मनि 20 वचनि कार्यि करी, 'तिदंडविरयाणं' जीवघात करण-कारण- अनुमतिरूप त्रिन्हि दंड तींहं हूंता विरत निवर्त्तिया, तींहं रहई हउं प्रणतु छउं ।
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पढइ । तर पाछइ
( 126 ) पाछइ 'नमोऽर्हत्-सिद्धा' इत्यादि पंच परमेष्ठि नमस्कारु उद्दाम गंभीरस्वरि हर्षरोमांचकंचुकितगात्रु हर्षाश्रुबिंदुदृष्टिवृष्टि हूंती करत हूंत सद्भूतगुणगर्भितु श्रीवीतरागस्तवु कहइ ।
(127) तर पाछइ
मुत्तात्तिमुद्दासमा जहिं दो वि गब्भिया हत्था । पुण निलाडदे लग्गा अन्ने अलग्ग ति ||
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एवंरूप मुक्ताशुक्तिकमुद्रावर्त्तमानु हूंतउ प्रणिधानु पढइ -'जय वीयराय' इत्यादि । 'जय' किस उ अर्थ ? सवहीं देव दानव मानव माहि उत्कर्षि करी वर्त्ति, हे वीतराग ! रागरहित, 'जगगुरु' जगद्गुरो ! 30 त्रिभुवनतत्त्वोपदेशदायक परमेश्वर श्री वीतराग रहई बुद्धिसंनिधानविधाननिमित्तु आमंत्रणु संबोधनु, 'भय' भगवन् ! ताहरा प्रभावइतर, 'मम' मू रहई, 'भवनिव्वेओ' भवनिर्वेदु संसारविरागु 'होउ' हुए, 'भयवं' ! इसउं वली संबोधनु भक्ति अतिशय जाणाविवा निमित्तु कीधरं ।
$123) 1 Bh. aizvi 2 Bh. करावे | $124 ) 1 Bh. भणिति । ( 125 ) 1 Bh. omits कर । 2 Bh. काय | $126 ) 1 Bh. वृष्टिदृष्टि ।
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