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डावश्यक बाला बोधवृत्ति
[ $113 - 115 ) १३६-१३९ भगवंतु गौतमु तींहं रहई परीसइ । तर पाछइ जि त्रिहुं उपवासे" करी पारणउं करता सेवाली ताप तीं रह पारण करतां गौतमगुण अनुमोदतां शुक्लध्यानधारा वर्त्तमानहं हूंता केवलज्ञानु ऊपनउं ।
(113) जि बिहुं उपवासे पारणउं करता दिन्न तापस तींहं रहई मागि आवतां 'जेह तणउ गौतमु इस शिष्य इस लब्धिपात्रु छइ सु गौतम तणउ गुरु किसउ छइ' इसी परि' चींतवतां शुक्लध्यान 5 धाराधिरोहइतर केवलज्ञानु ऊपनरं । जि एकि उपवासि पारणडं करता कोंडिन्य तापस तींहं रहई समवसरणु देखी श्री महावीरदेशनाध्वनि सांभली करी शुक्लध्यान लाभइतर केवलज्ञानु ऊपनउ । श्री गौतमस्वामि श्री महावीरु वांदी करी पाछउं जोयइ' तउ' सबइ तापस" केवलिसभा ऊपरि जायता देखी भणई', 'वच्छउ ! आवड, श्री महावीरु वांदउ' भगवंतु भणइ 'गौतम, केवलि आशातना म करि' । तर गौतमस्वामि मावी करी यथास्थान पहुतउ । श्री महावीरि मुक्ति पहुतइ हूंतइ गौतमस्वामि छिन्नगुरुस्नेहबंधनु हूंतउ 0 केवलज्ञानु ऊपाडी बारे" वरसे" पाछइ मुक्ति पहुतउ ॥
चत्तारि १ अट्ट २ दस ३ दो ४ य वंदिया जिणवरा चउव्वीसं । एह विषइ श्री गौतमकथा ।
$ 114 ) एवं अनेरेई' चवीस जिनवंदना इणि गाह करी करेवी । तथा नव चउवीसी जिनवंदना पुण करेवी । तथा चैत्यवंदना करतां बारस पूजापद जाणिवां । यथा
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अतीत-अनागत-वर्तमान जिनलक्षण त्रिन्हि पूजापद शक्रस्तवि प्रथमि दंडकि कहियई । स्थापनाअर्ह - तलक्षणु एकु पूजापदु 'अरहंतचेईयाणं' बीजइ दंडकि कहियइ । इह क्षेत्रसंभव भरतक्षेत्रजात ऋषभादिजिन चडवीसीलक्षणु एकु पूजापदु 'लोगस्सुज्जोयगरे' त्रीजइ दंडकि कहियइ । सतरिसउँ जिन श्रुतधर्म- चरित्रधर्मलक्षण त्रिन्हि पूजापद 'पुक्खरवरदीवड्डे' चउथई दंडकि कहियई । सिद्ध सिद्धार्थसुत नेमि नव चडवीसीलक्षण चत्तारि पूजापद 'सिद्धाणं बुद्धाणं' पांचमइ दंडकि कहियई ।
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अईयाइ तिनि सक्कत्थयम्मि चेईण वंदणं बीए | इह खित्तसंभवाणं उस भाइजिणाण तईयम्मि || सत्तरियं जिणाणं सुयधम्मो तह चरित्तधम्मो य । हुति नमसणजोगा तिन्नि वि एए चउत्थम्मि || सिद्धा सिद्धत्सुओ सुरवर विसयभूसणो नेमि । नवगं चडवीसीणं पंचमए दंडए चउरो ||
संपय-पय पमाणा इह वीस छहुत्तरं च वन्नसयं । पणिवा दंड गाइस पंचमओ दंडओ य इमो ||
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$ 115 ) इसी परि पंचमु दंडकु पढी करी उपचितपुण्यसंभारु हूंतउ भव्यु जीवु चैत्यवंदनानंतरु उचित विषइ उचितप्रवृत्तिनिमित्तु इसउं पढइ 'वेयावच्चगराणं' इत्यादि । वैयावृत्यकर गोमुख यक्ष चक्रेश्वरी यक्षिणी प्रमुख चवीस यक्ष यक्षिणी लक्षण श्री वीरशासन प्रतिकूल जि मिथ्यादृष्टि तींहं रहई निवारक 30 शांतिकर-अशिवनिषेधक, सम्यक्त्व धारक लोक रहई समाधिकर आर्त्त - रौद्रध्यानरक्षक तींहं संबंधिउं अथवा तींहं नइ विषइ काउस्सग्गु 'करेमि' करउं । ईंहां 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि न पढियई । वैया
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$112 ) 11 P. उपवासि । (113) 1 Bh. L. omit. 2 B. परिं । 3 Bh. चीत- । 4 L. omits the whole sentence 5 B. जोयतइ तर । P. had the same but a later correction makes it जोइ त । L जोयई। 6 L. omits. 7 P. भणी । 8 Bh. L. omit. 9 - स्थानक । बारहे । 11 P. वरिसे । (114) 1 Bh. omits. 2 Bh. सतरसउ ।
10 P.
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