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परिशिष्ट ३ बार्तागत सूक्तियाँ
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अंबर तारा डिग पड, धरण अपूठी होय । साहिब घीसालं आपणों, तो कलि उथल होय ॥-१२६-२८९ प्रहयो प्रासाढाह, गाजी नै घडकीयो। बूढो बाढालाह, निगुणी भूई सिर नागजी ।। -१६२-७२, अण कह्यो म ऊधपो।।
-१८२-१३४ प्रण काली पणनं प्रब, माली कर माकूल । -१८१-१२५ प्रत चोषो ऐराक
-१७६-७८ अपछर मैं और न पक्षी, रंभा छवि सारीष। षट रुत मैं नही पेषजे, रति वसंत सारीष ॥-४२-२६५ अमर कर प्रो पाषरां, कवि कथ अमर करत। -१६४-३ अमीणों तुम पास, तुमहीणो जाणुं नहीं। विवरो होसी वास, धास न विवरो साजनां ।। -१५४-३१ प्ररज कर अलवेलीयो, पला झेलीया पांण । म्याराजी मत मेलीयां पमगां सोस पलाण ॥-१७५.७५
पाइयो लेष पालाहाका, दूष-सूष का विरतंत बै। पावेगी यारो मोतडी, पर बंधी कुलवंत बै॥ -१००-१५८ प्रांगलीयां जगरी यसो, मूंग तणी फलीयाह । -१६६.४२ प्रांख्या किस बाण, तांख करे ने तांणीया। न डरै तेण दीवाण, सो माढु नैणा ही मांणीया।। -१५०-६ माज रूपाली रातडी, झिरमिर बरस्या मेह। पोउ मन षांची पोढीयो, नवली नारने नेह ॥-१२२-२६५ प्राज सलूणी रातडी, मोही प्रलूणी होय। एको कामण सीझीयो, वांदी विधुता जोप ।। -११६-२३१ पाजूनी दिन प्रति भलो, जीवत रहीया म्हेह वे। हिव सारा ही पौकड़ा, करस्यां सारा जेह वे।। -६५-१४०
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