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परिशिष्ट १
[ २०५ देसडला परदेसडा, नहीं झीलणरो जोष । तुझ कारण मुझ मारस्ये, तो मूग्रां न पांमूं मोष ।। ६३
धारावाक्यं अगर चंदन करी एकठा, चोहटे षडकावू चे (बे) ।
मुझ कारण तुझ मारस्ये, बलसूं प्रापण बे ॥ ६४ वार्ता- रीसालू कहे-तूं कोण छे ? कन्या कहे-हूं राजा मांन कच्छवाहानी दीकरी छ । रीसालू कहे...तूं किहां परणी छे ? कन्या कहे-सालिवाहननो दीकरो रोसाल छे, तेहनें परणावी छ । रीसालू कहे—ताहरो धणो मुझ सरिषो छ ? त्यारें कन्या कहे-रीसालू तो गहिलो सरिषो छ, बाहिर फिरतो फिरे छ, तमे तो महारूपवंत छो, लक्षणवंत छो । त्यारे रीसाल कहेदूहा- अवगुणगारी गोरडी, तिको अवगुण भाषत ।
आप पुरु[ष] नंद्या करे, पर पुरुषां वादंत ।। ६५ वार्ता- रीसालू कहे तुमें जानो, सांहमी वाडीमें जई बेसो, अमे तिहां प्रावीई छई । ते धारा कंन्या तो वाडीइं जइ बेठी अनें रीसालू तिहांथी राजाने जइ मिल्यो । राजा घुस्याल थयो। दरबारमें षबर पडी-जमाइ अाव्या। हवे धारा कंन्याने ढूंढवा मांडी। कन्या किहांइ दीसे नहीं । रीसालू कहे-स्यूं जोरो छो ? चाकर कहे-कन्या जोईई छोइं । त्यारे रीसालू कहे-में वाडीमें दीठी छ। तिहांथी सषी तेडी प्रावी। राति पडी त्यारे सिणगार सजावी, सषो लेई रीसालना मोहलमें गई। तिहां कंन्याने मेली सषी जाती रहो । रीसालई जोयंए स्त्री केहवीक छ ? त्यारे ओरडानी सांकल देई मांहे सूतो । स्त्री बाहिर ऊभी रही । त्यारें धारा बोलीदुहा- के मनो के मारीयो, के झंडीयो एं मार । हंजा हंदी गोरडी, ऊभी अंगण बार ।। ६६
रीसालवाक्यं नवि मयो नवि मारीयो, नवी झडीओ ऐं मार । हंजा हंदी गोरडी, गई बग्गां घरि बार ।। ६७
धारावाक्यं रेढा सरवर न छोडीइं, रेढां जावे राज । रेढी त्रिया किम रहे, रेढां विरणसे काज ।। ६८
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