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________________ [ १६ ] सौन्दर्य से अोतप्रोत सुकुमार नारी मनुष्य की काम-पिपासा को शान्त करने का साधन सृष्टि के प्रारंभ से ही रही है । इसलिए उसके सौन्दर्य और व्यक्तिगत विशिष्ट गुणों की असंख्य कल्पनायें अलग-अलग युगों में होती रही हैं । एक ओर मनुष्य नारी की सम्मोहन-शक्ति से जहां अभिभूत होता रहा है वहां वह उस पर पूर्ण अधिकार रखने के लिए हो सचेष्ट रहता आया है। अपना पूर्ण अधिकार खो देने की कल्पना उसे भयभीत भी करती रही है जिसके कारण वह अपनी अत्यन्त प्रिय वस्तु को संशय की दृष्टि से भी देखता आया है। दूसरी ओर, नारी अपना सब कुछ पुरुष को अर्पण कर सन्तोष और सुख का अनुभव करती रही है, वहां वह मनुष्य के कृत्रिम अधिकारों से बुने हुए सामाजिक नियमों के जाल में दम घुट जाने के कारण मनोवैज्ञानिक विवशताओं की विशेष परिस्थितियों में उस जाल को तोड़ कर सब के सम्मुख आ खड़ी हुई है । इस प्रकार की कथानों के नारी-चरित्रों को देखने से नारी और पुरुष के अधिकारों की असमानता तथा दाम्पत्य जीवन की विशृंखलता का अनुमान लगाने के साथ-साथ उस काल के मानव का नारी के प्रति दृष्टिकोण भी किसी अंश तक समझ में आता है । राजा रिसाल जब अगरजी की नगरी के पास पहुंचा तो उसे पता लगा कि एक सुन्दर राजकुमारी को पाने के लिये कितने ही लोग अपनी जान गंवा बैठे हैं, फिर भला वह क्यों पीछे रहता यद्यपि कुछ ही समय पहले उसकी शादी राजा भोज और राजा मान की लड़की से हो चुकी थी । चौपड़ के खेल में अगरजी से जीत जाने पर अगरजी का शिर न कटवाने के बनिस्पत उसकी बड़ी लड़को के साथ शादी करने का प्रस्ताव उसके सामने रखा गया परन्तु अनेक मनुष्यों का वध उसके कारण हुआ था, इसलिये उसने यह रिश्ता अस्वीकार कर दिया। वस्तुस्थिति तो यह थी कि लोंगों के प्राण लेने का खेल उसका पिता खेलता था, लड़की का भला इसमें क्या दोष ? एक ओर पिता के कुकृत्यों के कारण उसे पापिनी घोषित होना पड़ा और दूसरी ओर उसका भविष्य भी अनिश्चित हो गया। मनुष्य का नारी के प्रति मोह बड़ा अजीब होता है। रिसाल ने राजा की दस माह की कन्या के साथ शादी करली और उसे लेकर वहां से रवाना भी हो गया। अनेक प्रकार की कठिनाइयों को झेलने के बाद लड़की ग्यारह साल की हुई और उसका प्रेम-सम्बन्ध अचानक ही हठमल के साथ हो गया । रिसालू का उसके प्रति कुपित होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि वह उसको परिणीता थो। परन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यदि देखा जाय तो जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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