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प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य
प्राचीन भारतीय साहित्य में पद्य के साथ गद्य का भी यथोचित रूप में प्रयोग किया गया है। वेदों, जैनागमों, संस्कृत नाटकों और कथा-ग्रन्थों आदि में गद्य की छटा विशेष द्रष्टव्य है। संस्कृत-साहित्य में पंचतंत्र, कथासरित्सागर, दशकुमारचरित्, शुकबहुत्तरी सिंहासनबत्तीसी, बैतालपच्चीसी आदि भी गद्य के अनूठे उदाहरण हैं। राजस्थानी भाषा
भी गद्य-साहित्य का निर्माण विशेष रूप में इबा है। हजारों की संख्या में ऐतिहासिक ख्यातें, वाताएं और वचनिकाएं आदि लिखी गई हैं, जिनमें मुख्यतः राजस्थानी गद्य का व्यवहार किया गया है। साथ ही संस्कृत के गद्य-ग्रन्थों के अनुवाद भो प्रचुर मात्रा में राजस्थानी भाषा में किये गये हैं।
राजस्थानी वार्तामों में राजस्थानी संस्कृति का वड़ा ही अनूठा चित्रण किया गया है। इन वार्तामों में राजस्थानी जनता की दिनचर्या, हाट, उपवन, घर-प्राङ्गण, उत्सव, युद्ध, क्रीड़ा आदि का विस्तृत और सजीव वर्णन मिलता है। राजस्थान और बाहर के ग्रन्थ-भण्डारों में राजस्थानी वार्तामों के छोटे-बड़े कई संग्रह मिलते हैं । राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर (Rajasthan Oriental Research Institute) के संग्रहालय में भी ऐसी वार्तामों के कई हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं जिनको यथाशक्य शीघ्र ही सुसम्पादित रूप में प्रकाशित किया जावेगा।
प्रस्तुत संग्रह में तीन वर्णनात्मक राजस्थानी वार्ताओं को प्रकाशित किया जा रहा है। इन वार्तामों में आदर्श राजपूतों की दिनचर्या का विस्तृत वर्णन मिलता है जिससे राजस्थानी संस्कृति के कई अंगों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। वार्तामों का सम्पादन राजस्थान के प्रसिद्ध विद्वान् श्री नरोत्तमदासजी स्वामी द्वारा हा है और प्रारम्भ में राजस्थान के प्रसिद्ध अन्वेषक श्री अगरचन्दजी नाहटा के दो निबन्ध भी सम्बन्धित विषय पर प्रकाशित किये गये हैं जिनसे पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है।
जयपुर ता० १० अगस्त, १९५६ ई०
मुनि जिनविजय
सम्मान्य संचालक राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर
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