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________________ (२४) चुकी है और जिनसमुद्रसूरि और शांतिसागरसूरि संबंधित १६ वीं शताब्दी के वर्णन 'राजस्थानी' भाग २ में प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसी ही कतिपय वर्णनात्मक रचनाए चारण कवियों की प्राप्त होती हैं जिनमें से खिडिया जगा की 'रतन महेशदासोतरी वचनिका' एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित है और 'खीची गंगेव नींबावतरो दोपहरो' और 'राजान राउतरो वात वरणाव' राजस्थान पुरातत्व मंदिर से प्रकाशित हो रहे हैं । ये दोनों भी महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। राजस्थान में लोकवार्तामों को कहने का ढंग भी बहुत छटादार, वर्णनात्मक, तुकान्त और निराला है । उसका वर्णनीय प्रसंग साकार हो उठता है। बात कहने वाला जहां जहां भी प्रसंग मिलता है उसका पनि बड़े ही विस्तार से प्रसंग के अनुकूल करके श्रोतामों को अपनी मोर ऐसा प्राकर्षित कर लेता है कि वे अन्य सारी बातें भूल कर बात सुनने के रस में निमग्न हो जाते हैं । श्रोता रातभर उसी रस में सराबोर रहता हुमा समय का अन्दाजा भूल जाता है कहानीकार छोटी सी बात को इतनो लम्बी और छटावार बनाये जाता है कि जिससे कई दिनों तक वह बात चलती ही रहती है । शहरी वातावरण अब इसके अनुकूल नहीं रहने से राजस्थान में वातों के कहने की जो विशेष शैली थी, अब लुप्त होती जा रही है । रसिक व्यक्ति गांवों में माज भी इसका रसास्वाद कर सकते हैं । प्रस्तुत लेख द्वारा विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जाने वाली इस वार्ता-शैली और बातों को चिरस्णयी बनाने के लिए ध्यान प्राकर्षित किया जाता है। गुजरात में लोक-साहित्य और वार्तादि के संग्रह का जैसा अच्छा प्रयत्न हुमा है, राजस्थान के साहित्य-प्रेमियों के लिए भी अनुकरणीय है । प्रस्तुत लेख में जैसी वर्णनात्मक रचनाओं का परिचय दिया गया है-खोज करने पर और भी कई रचनाए मिल जाने की पूर्ण संभावना है । जैसा कि पहले कहा गया है उपलब्ध प्रतियों में तीन महत्वपूर्ण प्रतियें प्रभी अपूर्ण रूप में उपलब्ध हुई हैं। उनकी पूर्ण प्रतियें भी अन्वेषणीय हैं। - ऐसी वर्णनात्मक रचनाओं के विविध नाम प्राप्त हुए हैं। वाग्विलास, मभाशृङ्गार, मुस्कलानुप्रास, वचनिका-ये पुराने नाम तो मिलते ही हैं । स्व० देसाई ने तुकान्त की विशेषता को लक्ष्य करते हुए इनकी संज्ञा 'पद्मानुकारी गद्य' शैली बतलाया है । यद्यपि १५ वीं शताब्दी से पहले की कोई ऐसी रचना लोक-भाषा में अभी तक प्राप्त नहीं है, पर पृथ्वीचन्द्र चरित्र में इस ग्रन्थ से पहले भी यह शैली प्रचलित रही होगी ऐसा प्रतीत होता है। १६ वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक राजस्थान और गुजरात की भाषा एक जैसी ही थी अतः इन रचनाओं में से सभाशृङ्गार में गुजराती भाषा का पुट अधिक देखा जाता है। प्रथम शुद्ध राजस्थानी में है और अवशेष तीन अपूर्ण रचनाओं की भाषा दोनों प्रान्तों के लिये समान सी होने से इनका रचना काल १६ वीं शताब्दी ही होना विशेष संभव है। -श्री अगरचन्द नाहटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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