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________________ ( ६ ) महोत्सव वर्णन - "अलंकरित प्राकार, श्रृंगारिया प्रतोली द्वार । मंच प्रति मंच तणी रचना हुई, स्वर्गपुरी तरणी शोभा लई | ध्वज पताका लहकई, पुष्प परिमल वह कई । नाचई पात्र, राजभवनि श्रावइ प्रक्षत पात्र | सोमाई भरतां नाव छात्र, लोक अलंकरई आमररिण गात्र, उत्सव करिया एहइज वात । df aai aऊई कोररण, बांधीयई तोरण, बांधीयई बंदरवाल, उत्सव विशाल । गुल घीउ लाहीय, मन ऊमाहीयई । ईण युक्ति जन्म महोत्सव हुआ ।" इस ग्रन्थ के चार वर्ष बाद ही जिनवर्द्ध नगरण ने "तपो गच्छ गुर्वावली" लिखी उसमें भी पचानुकारि गद्य विशेष रूप से मिलता है। यहाँ उसका थोड़ा-सा उद्धरण दिया जाता है"जिम देव माहि इन्द्र, जिम ज्योतिश्चक्र माहि चन्द्र, जिम वृक्ष माहि कल्पद्र ुम, जिम रक वस्तु माहि विद्र ुम, जिम नरेन्द्र माहे राम, जिम रूपवंत माहे काम, जिम स्त्री माहे रम्भा, जिम वादित्र माहे भंभा, जिम सती माहि सोता, जिम स्त्री माहि गीता, जिम साहसीक माहि विक्रमादित्य, जिम ग्रहगण माहि श्रादित्य, जिम रत्न माहि चितामरिण, जिम ग्राभरण माहि जूड़ामणि, जिम पर्वत माहि मेरु भूधर, जिम गजेन्द्र माहि ऐरावा सिन्धु, जिम रस माहि घृत, जिम मधुर वस्तु माहि श्रमृत, तिम सांप्रति कालि, सकल गच्छन्तरालि, ज्ञानि विज्ञान तपि जपि शमि दमि संयमि करी तुच्छ, ए श्री तपोगच्छ, प्राचन्द्रार्क जयवंत वर्त्तई । " इस ग्रन्थ के तीन वर्ष बाद सं. १४८५ में हीरानन्द सूरि द्वारा रचित 'वस्तुपाल तेजपाल राम' में निम्नोक्त प्रकार का गद्य श्राया है इस एक श्री शत्रुञ्जय तरगउ विचारू महिमा नउ भण्डारु मन्त्रीश्वर मन माहि जाणी उत्सरंग प्ररणी । यात्रा उपरि उद्यम कीधर, पुण्य प्रसादन नउ मनोग्य सिधउ ।। ९ ।। शिवदास रचित 'अचलदास खीची की वचनिका' का रचना - काल १५ वीं शताब्दी माना जाता है। उसमें पद्य के साथ-साथ बात रूप गद्य पाया जाता है। यद्यपि यह सर्वत्र तुकान्त नहीं है, फिर भी वचनिका संज्ञक सबसे प्राचीन रचना यही है । उदाहरण "गि पनि पउलि पउलि हस्तीकी गज घटा, ती ऊपरि सात-सात मइ धनक-धर माँठा सात-सात श्रोति पाइककी बदली, सात-सात ग्रोलि पाइककी उठी । बेड़ा उडगा मुद फरफरी चुहँचकी टांड़ ठाँड ठररी इसी एक त्यापट उडि ऋत्र दिसी पड़ी, निशा वाजि तक निनादि घर प्राकाम चड़हड़ी, । बाप बाप हो ? भाग प्रारम्भ पारम्भ लागि गढ़ लेया हार, किना बाप बाप हो ? थारा सत तेज अहँकार, राड दुग राखगा द्वार ।" १६ वीं शताब्दी में लिखित एक विशिष्ट वर्णनात्मक जैन ग्रन्थ जैसलमेर के 'जैन - भण्डार' प्राप्त हुआ है। उसका नाम हासिये में मुत्कलानुप्रास' लिखा हुआ है। उसके कुछ उद्धरण मैंने अपने वर्णनात्मक राजस्थानी गद्य ग्रन्थ' शीर्षक लेख में दिये हैं। यहां उसमें से उदाहरणार्थ ग्रीष्म ऋतु का वर्णन दिया जा रहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003390
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarottamdas Swami
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1997
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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