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राजस्थानी गद्यकाव्य की परम्परा
भारतीय प्राचीन ग्रन्थों में कवि की कृति को काव्य माना गया है और कबि को क्रान्तदर्शी harat और पंडित कहा गया है। पीछे से 'कवि' शब्द छन्दोबद्ध रचना करने वाले विद्वानों के लिए रूढ़ हो गया और छन्दोबद्ध रचना 'काव्य' के नाम से सम्बोधित की जाने लगी । प्राचीन विद्वानों ने 'काव्य' शब्द की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। भामह और रूद्रट ने "शब्दार्थी सहितौ काव्यम्", "शब्दार्थी काव्यम्" अर्थात, शब्द और अर्थ मिल कर काव्य होता है, ऐसा कहा है। किसी विद्वान् ने मलंकारयुक्त शब्द और अर्थ को ही काव्य माना है । विश्वनाथ कविराज ने " वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" काव्य का लक्षण बताया है अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य है । मुझे यह व्याख्या बहुत ही उपयुक्त और सुन्दर लगती है । काव्य के दृश्य और श्रव्य, दो प्रधान भेद हैं । नाटकों को दृश्य-काव्य कहा जाता है और श्रव्य-काव्य के गद्य, पद्य श्रौर मिश्र ये तीन भेद किये गये हैं । पद्यकाव्य छन्दोबद्ध होता है और उसके महाकाव्य, खण्डकाव्य और कोषकाव्य ये तीन भेद माने गये हैं । महाकाव्य और खण्डकाव्य तो प्रसिद्ध ही हैं । कोषकाव्य में स्तोत्र और सुभाषित संग्रह को माना गया है । गद्यकाव्य में छन्द का बन्धन नहीं रहता, अन्य सब काव्य-गुरण पाये जाते हैं । वामन ने गद्य तीन प्रकार का बताया है- वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्रायः और चूर्णक | साहित्यदर्पण- कार ने मुक्तक नामक चौथा भेद भी माना है। जिस गद्य में किसी छन्द के पाद व पादार्थ मिलते हैं उसे वृत्तगन्धि, लम्बे-लम्बे ममास वाले गद्य को उत्कलिकाप्रायः, छोटे-छोटे समस्तपदयुक्त गद्य को चूर्णक और समस्त पदों के प्रभाव वाले गद्य को मुक्तक के नाम से सम्बोधित किया गया है ।
गद्य-काव्य के, कथा और आख्यायिका, दो भेद भी हैं। कादम्बरी को कथा व हर्षचरित्र को आख्यायिका के नाम से सम्बोधित किया गया है। मिश्रकाव्य में गद्य और पद्य का मिश्रण होता
। इसके चम्पू, विरुद और करम्भक, ये तीन भेद हैं। वर्णनात्मक मिश्रकाव्य को चम्पू, गद्य और पद्य में की गयी राजस्तुति को विरुद एवं अनेक भाषा युक्त मिश्रकाव्य को करम्भक की संज्ञा दी गयी है । गद्य की अपेक्षा पद्य सरलता से कंठस्थ हो सकता है और अधिक समय तक स्मरगा रह सकता है, अतः इसकी उपयोगिता व स्थायित्व अधिक है। इस सुविधा को ध्यान में रखते हुए भारतीय विद्वानों ने शब्दकोष, वैद्यक, ज्योतिष यादि विषयों के उपयोगी ग्रन्थ पद्यबद्ध ही अधिक बनाये हैं । पद्य में कल्पना की उड़ान, लयसरलता, मनोहरता व श्रवणसुखदला होने से ग्रन्थकारों का ध्यान उस और अधिक जाना स्वाभाविक था । इसी आकर्षा के फलस्वरूप भारतीय साहित्य पद्य रूप में अधिक मिलता है । मुद्रण-युग के प्रसार के साथ-नाथ गद्य साहित्य निरन्तर अभिवृद्धि को प्राप्त हुआ है। पूर्व लोक भाषाओं में गद्य रचनाएँ बहुत ही थोड़ी मिलती हैं । हिन्दी भाषा में तो प्राचीन गद्य राजस्थानी और गुजराती भाषा की अपेक्षा भी ग्रल्प है ।
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