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________________ सूरजप्रकास 9 ग्रहपति सूर प्रकासते, बहिर दिवस रूपक सूरज प्रकासतै, अंतर नित्त इति श्री महाराजाधिराज महाराज राजेस्वर * स्त्री स्त्री स्त्री स्त्री स्त्री प्रभसींघजी रो ग्रंथ नांम सूरज - प्रकाम कविया " करणीदान रौ कहियौ संपूरण सं० १० १८०७.... १ग वाहिर । २ ख. माहाराजाधिराज । ३ ख. ग. महाराजा । श्वर । ५ ख. ग. प्रभैसिंघजी । ६ ख. सूरिज। ग. सूरझ । ८. करनीदांन । ख. ग. संपूर्ण । १० 'ख' प्रति में नहीं हैं । मातोतम । यहां पर 'ख' प्रति में || श्री रस्तु || || श्रुभं भवतु || || श्री || प्रकास । उजास || ६६० - नोट: - 'ख' तथा 'ग.' प्रतियों में यहां से श्रागे लिपिकों के लिखे हुए निम्न वर्णन अलगअलग मिलते हैं: - [ २७५ 'ख' प्रति में : संवत् १८८४ रा फाल्गुण शुक्ला । १५ । शनिवासरे || लिखितं बोडा मगदत । योध नगरे | मानसिंह राजे शुभम् ।। सूरजप्रकास ग्रंथ संख्या । ६२२४ ।। लेखक पाठकयो । 'ग' प्रति में: मासे प्रासाद मासे शुक्ल पक्ष षष्टी ६ तिथौ गुरुवारें पोथी महाराजा श्री श्री श्री श्री सधजीरी || लिषतं । रामचंद सेवक चोथरांम सुध करतव्यं वध्नोर नगर मध्ये लिपि कृत चातुर्मास करतव्यं । माहाराजाजी श्री प्रषेसींघजी दीर्घायु । मंगलं लेषकानांच | पाठकानांच मंगल | मंगलं सर्वलोकांनां भूमि भूपति मंगलं ॥ १ ॥ Jain Education International ॥ कवित्त ॥ 1 1 तुम प्रवीन विध्य जथा योग्य जानु सब गुन के गहिया हित सब सु विचारों हौं । लीये "सुभ रीत विपरीत कह बीसं नाह्य परम सुग्यांन विध्य सबै उर धारौ हौं । पर उपगारी रीत संत सब मिल प्राई, सोय श्रम तुम धरे कारज्य सुधारौ हौं । सकल अरथ ठाकुर श्री सिंघजकु सुफल, फलो थिरता हमारी करौ सबै गुन धारौं हौं । १ ४ ख. राजराजे ७ ख. ग. कवीया । संवत १८४१ वर्षे For Private & Personal Use Only इति श्रुभ भवतु वल्याणमस्तु लेषक पाठक दीर्घायु वाचं भणे त्यांनु भ्रास्त्रीवचन राम राम वाचसीः ॥ श्री ॥ 11 277 11 ॥ श्री ॥ ६०. ग्रहपति - सूर्य । उजास - प्रकाश । www.jainelibrary.org
SR No.003388
Book TitleSurajprakas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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