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- [ १६ ] सिर विलंद खांन 'साहू' सहित, प्रासंग हुवे सु प्रावसी । असमान पड़े थांभै अडर, प्रो नर पान उठावसी ।
सू.प्र. भाग २, पृ. २४२ सर बुलन्द की सेना में बारह हजार सैनिक तो यूरोपियनों की देख-रेख · में ही थे तथा तोपें दागने का काम भी यूरोपियन करते थे। चार हजार 'सुतर नालें', तीन हजार 'रेहकले', तथा शक्तिशाली सेना के वर्णन से उसका बहुत चतुर और विजयाकांक्षी होने का प्रमाण मिलता है।
पहले तीन दिन तक सर बुलन्द राठौड़-वाहिनी के समक्ष नहीं आया और गोलाबारी करता रहा । अत: वह युद्ध-विद्या में दक्ष सिद्ध होता है।
नगर के प्रत्येक द्वार पर तोपें और सैनिकों का प्रबन्ध करके उसने अपनी नगर-रक्षा की भावना को प्रमाणित किया है ।
अवसर पड़ने पर वह युद्ध-स्थल से भाग जाता था। इस प्रकार वह हिन्दुनों की तरह एक ही स्थान पर लड़ते-लड़ते प्राण गंवा देना बुद्धिमानी नहीं समझता था । अपनी हार होते हुए देख कर उसने महाराजा अभयसिंह से संधि कर ली तथा उनकी शरण में आ कर आत्मसमर्पण कर दिया। तत्पश्चात् वह आगरे की
ओर रवाना हो गया। इस भाव का चित्रण कवि ने निम्न पंक्तियों में किया है:
पड़े पाय सिर विलंद, जाणं सरणाय सधारां । म्हैं बंदा हुकम का, एम कहियो उपवारां। अवर रखत प्रारबां, किलै वंचिया 'अधिकार' । जिक किया सही निजर, किला सहित कोठारा। जदि होय रूख पतझड़ जिही, सुभड़ा विरिणदुख सालियो। प्रागरा दिसी सिर विलंद इम, हीण माण होय हालियो।
सू.प्र. भाग ३, पृ. २६४ प्रतः सर बुलन्द इतना शक्तिशाली और स्वाभिमानी होने के साथ-साथ अवसरवादी भी था। अन्य चरित्रः___ कवि ने राजनीतिज्ञ, युद्ध-विद्या में चतुर और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त करने वाले अनेक वीरों का परिचय भी ग्रंथ के अन्तर्गत यथा-स्थान यत्र-तत्र दे दिया है । पाठकों की सुविधा के लिये उनमें से कुछ का उल्लेख सूरजप्रकास की ऐतिहासिकता के अन्तर्गत करने का प्रयत्न किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में स्त्रीपात्रों का अभाव ही है। केवल महाराजा जसवन्तसिंह (प्रथम) की रानियों
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