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________________ अध्ययनं-५- | नि. १५२२] २६ होइ अइरेगलहूआ आहरियभरोव्व भारवहो ॥२॥ (तथा)-उप्पन्नाणुप्पन्ना माया अनुमग्गओ निहंतव्वा । आलोयणनिंदनगरहणाहिं न पुणो सिया बितियं ॥३॥ तस्स य पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरू उवइसंति । तं तह अनुचरियव् अनवत्थपसंगभीएणं ॥४॥ 'पडिक्कमणं'त्ति - 'आलोइऊण दोसे गुरुणा पडिदिन्नपायच्छित्ता उ । सामाइयपुव्वं समभा(वा) वठिया पडिकमंति ॥१॥ सम्ममुवउत्ता पयंपएण पडिक्कमणं कड्डेति, अनवत्थपसंगभीया, अनवत्थाए पुन उदाहरणं तिलहारगकप्पट्टगोत्ति, 'कितिकम्मति तओ पडिक्कमिथा खामणानिमित्तं पडिकंतायवत्तनिवेयणत्थं च वंदंति, तओ आयरियमादी पडिक्कमणत्यमेव दंसमाणा खाति, उक्तं च-- आयरिउवज्झाए सीसे साहमिए कलगण य । जे मे केऽवि कसाया सव्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ सव्वस्स समणसंघस्स भगवओ अंजलिं करिय सीसे । सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयपि ॥२॥ सव्वस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहियनियचित्तो । सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयंपि ॥३॥" इत्यादि 'दुरालोइयदुप्पडिक्ते य उस्सग्गे'त्ति एवं खामित्ता आयरियमादी ततो दुरालोइयं वा होजा दुप्पडिकंतं वा होज्जा अनाभागादिकारणेण ततो पुनावि कयसामाइयां चरित्तबिसोहणत्थमेव, काउस्सग्गं करेंतित्ति गाथार्थः ॥ ‘एस चरित्तुस्सग्गो' गाहा व्याख्यानि. (१५२३) एस चरित्तुस्सग्गो दसणसुद्धीइ तइयओ होइ । सुअनाणस्स चउत्थो सिद्धाण थुई अ किइकम्मं ।। वृ- एस चरित्तुसग्गात्ति चरित्तातियारविसुद्धिनिमित्तोत्ति भणियं हाइ; अयं च पंचासुस्सासपरिमाणा ।। तता नमोक्कारेण पारेत्ता विशुद्धचरित्ता विशुद्धदेसयाणं दंसणविसुद्धिनिमित्तं नामुक्त्तिणं करेंति, चरितं विसोहियमियाणि दंसणं विसोहिज्जतित्तिकहु, तं पुन नामुक्त्तिणमेव. करंति, मू. (४०-४६) लोगस्सुजोयगरे० - 'लोगस्सुञ्जोयगरे' त्यादि, अयं चतुर्विंशतिस्तवे न्यक्षेण व्याख्यात इति नेह पुनर्व्याख्यायते, चतुर्विंशतिस्तवं चाभिधाय दर्शनविशुद्धिनिमित्तमेव कायोत्सर्ग चिकीर्षवः पुनरिदं सूत्रं पठन्ति मू. (४७) सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं बंदणवत्तियाए पूअणवत्तियाए सक्कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए बोहिलाभवत्तियाए निरुवसागवत्तियाए सद्धाए मेहाए धिइए धारणाए अनुप्पेहाए वड्डमाणीए ठामि काउस्सगं ।। वृ-सर्वलोकेऽर्हचैत्यानां करोमि कायोत्सर्गमिति, तत्र लोक्यते-दृश्यते केवलज्ञानभास्वतेति लोकः-चतुर्दशरज्ज्वात्मकः परिगृह्यत इति, उक्तं च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003377
Book TitleAgam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages808
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 40, & agam_aavashyak
File Size16 MB
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