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अध्ययनं : ७, (चूलिका- १ )
मू. (१३६६)
जरमरण-मयर-पउरे रोग-किलेसाइ-बहुविह-तरंगे । कम्मट्ठकसाय-गाह - गहिर-भव - जलहि मज्झम्मि ॥ मू. (१३६७) भमिहामि भट्ट सम्मत्त नाण-चारित-लद्ध-वरपोओ । कालं अनोर-पारं अंतं दुकखाणमलंभतो ।।
मू. (१३६८) ता कइया सो दियहो जत्था हं सत्तु-मित्त-सम- पक्खो । नीसंग विहरिस्सं सुह-झाण-नीरंतरो पुणोऽभवङ्कं ॥ मू. (१३६९) एवं चिर- चिंतयाभिमुह-मनोरहोरु-संपत्ति-हरिस-सुमल्लसिओ । भत्ति-भर- निब्रोणय - रोमंच-उक्कंच-पुलय- अंगो || पू. (१३७०) सीलंग- सहस्स अट्ठारसण्ह धरणे समोत्थय-क्खंधो । छत्तीसायारुक्कंठ-निट्ठियासेस-मिच्छत्ते ॥
पू. (१३७१)
पडव पव्वजे विमुक-मय-मान- मच्छरामरिसो । निम्मम - निरहंकारो विहिणेवं गोयमा विहरे | विहग इवा पडिबद्धो उत्तो नाणं- दंसण-चरिते ।
मू. (१३७२ )
पू. (१३७३)
संगो घोर परीसहोवसग्गाइं पजिणंतो ॥ उग्गाभिग्गह-पडिमाइ राग-दोसेहिं दूरतर मुक्को । रोहट्टज्जाण-विवजिओ य विगहासु य असत्तो ! जो चंदनेन बाहु आलिपइ वासिणा व जो तच्छे । संथुणइ जो अ निंदइ सम-भावो हुज दुण्हं पि ॥
पू. (१३७४)
मू. (१३७५) एवं अनिगूहिय बल - विरिय-पुरिसक्कार-परक्कमो सम-तण-मणि- लिड्डु-कंचनोको परिचत्त- कलत्त पुत्त-सुहि-सयण- मित्त- बंधव-धन- सुवन्न- हिरन्न- मणी - रयणसार-भंडारो अच्चंत-परम-वेरग्ग-वासनाजणिय-पवर - सुहज्झवसाय-परम-धम्म-सद्धा-परो अकिलिङ निक्कलुस - अदीन-माणसोय वय-नियम-नाण-चरित -तवाइ-सयल-भुवणेक्क-मंगल-अहिंसा-लक्खणसंताइ-दस-विह धम्मानुट्ठाणेकंत-बद्ध-लक्खो सव्वावस्सग - तक्काल- करण-सज्झाय-झाणं आउत्तो संखाईय- अनेग-कसिण-संजम-पएसु अविखलिओ संजय विरय- पडिहय-पच्चक्खाय- पाव - कम्मो अनियाणो माया- मोस-विवजिओ साहू वा साहूणी वा एवं गुण-कलिओ जइ कह वि पमायदोसेणं असई कहिंचि कत्थइ वाचा इ वा मनसा इवाति-करण-विसुद्धीए- सव्व-भाव-भावंतरेहिं चेव संजममायरमाणो असंजमेणं छलेज्जा तस्स णं विसोहि-पयं पायच्छित्तमेव तेनं पायच्छित्तेणं गोयमा तस्स विसुद्धि उवदिसिज्जा न अन्नह त्ति तत्थ णं जेसुं जेसुं ठाणेसुं जत्थ जत्थ जावइयं पच्छित्तं तमेव निदृंकियं भन्नइ से भयवं के णं अद्वेणं भन्नइ जहा णं तं एव निट्टंकियं भन्नइ गोयमा अनंतरानंतर कमेणं इणमोपच्छित्त-सुत्तं ' नेग-गुणगणाइन्नस्स दढ-व्यय-चरित्तस्स एगतेन जोगस्स एव विवक्खिए पएसे चउक्कन्नं पत्रवेयव्वं नो छक्कन्नं तहा य-जस्स जावइयेणं पायच्छित्तेणं परमविसोही भवेज्जातं तस्स णं अनुयट्टणा-विरहिएणं धम्मेक्क-रसिएहिं वयणेहिं जह-ट्ठियं अनुणाहियं तावाइयं चैव पायच्छितं पयच्छेजा एएणं अद्वेणं एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा तमेव निदृंकियं पायच्छित्तं
भन्नइ ।
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