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________________ ३४४ स्थानाङ्ग सूत्रम् ५/२/४५९ संहननधृत्यादिपरिहाणिमपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्त्तितस्तजीतमिति, अत्र गाथाः॥१॥ "आगमसुयववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो। पच्चक्खो य परोक्खो सोऽविअ दुविहो मुनेयव्यो ।। ॥२॥ पञ्चक्खोविय दुविहो इंदियजो चेव नो य इंदियओ। इंदियपञ्चक्खोविय पंचसु विसएसु नेयव्यो॥ ॥३॥ नोइंदियपच्चक्खो ववहारो सो समासओ तिविहो । __ ओहिमनपञ्जवे या केवलनाणे य पञ्चक्खो। ॥४॥ पच्चक्खागमसरिसो होइ परोक्लोवि आगमो जस्स। चंदमुहीव उ सोविहु आगमववहारवं होइ ।। पारोक्खं ववहारं आगमओ सुयहरा ववहरंति। चोद्दसदसपुव्वधरा नवपुबिग गंधहत्थी य॥ ॥६॥ जंजहमोल्लं रयणं तं जाणइ रयणवाणिओ निउणं । इय जाणइ पच्चक्खी जो सुज्झइ जेण दिनेणं ।। ॥७॥ कप्पस्स य निजुत्तिं वववहारस्सेव परमनिउणस्स । जो अत्थओवियाणइ सो ववहारी अणुनाओ।। ||८|| तंचेवऽनुसज्जते ववहारविहिं पउंजइ जहुत्तं । __ एसो सुयववहारो पन्नत्तो वीअरागेहिं ॥ ॥९॥ अपरक्कमो तबस्सी गंतुं जो सोहिकारगसभीवे। नचएई आगंतुंसो सोहिकरोऽवि देसाओ ।। ॥१०॥ अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्ठचेट्टाओ। इच्छामऽजो ! काउंसोहिं तुब्मं सगासंमि।। ॥११॥ सो ववहारविहिन्नू अनुसजित्ता सुओवएसेणं । सीसस्स देइ आणं तस्स इमं देह पच्छित्तं । ॥१२॥ जेणऽन्नयाइ दिढं सोहीकरणं परस्स कीरंतं । तारिसयं चेव पुणो उप्पन्नं कारणं तस्स ॥ ॥१३॥ सो तंमिचेव दवे खेत्ते काले य कारणे पुरिसे ! देसं अवधारेन्तो चउत्थओ होइ ववहारो॥इति ॥१४॥ वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडओ वावि । देसं अवधारेन्तो चउत्थओ होइ ववहारो॥ इति ॥१५॥ बहुसो बहुस्सुएहिं जो वत्तो नो निवारिओ होइ । वत्तनुवत्तपमाणं जीएंण कयं हवइ एयं ॥ ॥१६॥ (तथा) -'जंजस्स उ पच्छितं आयरिअपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविहीया एसो खलु जीयकप्पो उ॥ इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003337
Book TitleAgam Sutra Satik 03 Sthan AngSutra 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages596
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 03, & agam_sthanang
File Size12 MB
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