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________________ अध्ययनं - ४ - [ नि. १२७३] १३७ नेयव्वाओ । दिसित्ति बिइयं दारं गयं, इदानिं 'नंतर 'त्ति, वित्थारायाभेणं जं पमाणं भणियं तओ वित्थारेणवि आयामेणवि जं अइरेगं लहइ चोक्खसुइयं सेयं च जत्थ मलो नत्थि चित्तलं वा न भवइ सुइयं सुगंधि ताणि गच्छे जीविउवक्कमणनिमित्तं धारेयव्वाणि जहन्त्रेण तिन्नि, एगं पत्थरिज्जइ एगेण पाउणीओ बज्झंति, तइयं उवरिं पाउणिज्जंति, एयाणि तिन्नि जहन्त्रेण उक्कोसेण गच्छं नाऊण बहुयाणिवि धिप्पंति, जइ न गेण्हइ पच्छित्तं पावेइ, आणा विराधना दुविहा, मइलकुचेले निज्जंते दडुं लोगो भणइ-इहलोए चेव एसा अवत्था परलोए पावतरिया, चोक्खुसुइएहं पसंसति लोओ-अहो लट्ठो धम्मोति पघज्जभुवगच्छंति सावयधम्मं पडिवज्जंति, अहवा नत्थि णंतयंति रयणीए नीहामित्ति अच्छावेइ तत्थ उट्ठाणा दोसो, तत्थ विराधना नामं कस्सइ गिण्हेज्जा तत्थ विराधना, तम्हा त्तव्वाणि नंतयाणि, ताणि पुण वसहा सारवेंति, पक्खियचाउम्मासियसंवच्छ रिए पडिले हिज्जंति, इहरहा मइलिज्जंति दिवसे दिवसे पडिलेहिज्जताणि, एत्थ गाहापुव्वं दव्वालोयण पुव्विं गहणं नंतकट्ठस्स । गच्छंमि एस कप्पो अनिमित्ते होउवक्कमणं ।। ३६ ।। - इमीसे अक्खरगमनिया-पुव्वं ठायंता चेव तणडगलछाराइ दघमालोअंति, पुव्विं गहणं च कट्ठस्स तत्थ अन्नत्थ वा, तत्थ कट्ठस्स गहणे को विही ? वसहीए ठायंतओ चेव सागारियसंतयं वहणकट्टं पलोअंति, किंनिमित्तं वहणकट्टं अवलोइज्जइ ?, कोइ अनिमित्तमरणेण कालं करेज्ज राओ ताहे जइ सागारियं वहणकट्टं अनुन्नवणट्टाए तं उठ्ठवेंति ता 'आउज्जो ओ' आउज्जोयणा अहिगरणदो सो तम्हा उ न उट्ठवेयव्वो, जइ एगो साहू समत्थो तं नीणेउं ताहे कठ्ठे न धेप्पइ, अह न तरइ तो जत्तिया सक्केइ तो तेन पुव्वपडिलेहिएण कट्ठेण नीर्णेति, तं च कट्टं तत्थेव जइ परिठवेंति तो अन्त्रेण गहिए अहिगरणं, सागारिओ वा तं अपेच्छंतो एएहिं नीणियंति पदुट्ठो वोच्छेयं कडगमद्दा करेज्जा तम्हा आनेयव्वं, जइ पुण आणेत्ता तहेव पवेसंति तो सागारिओ दट्टूण मिच्छत्तं गच्छेज्जा, एए भांति जहा अम्ह अदिन्नं न कप्पइ इमं चऽणेहिं गहियंति, अहवा भणेज्ज-समणा ! पुणोवि तं चेव आणेहत्ति, अहो नेहिं हदुसरक्खावि जिया, दुगुंछेज्जमयगं वहिऊण मम घरं आणेन्ति उड्डाहं करेज्जा वोच्छेयं वा करेज्जा, जम्हा एए दोसा तम्हा आणेत्ता एक्को तं धेत्तूण बाहिं अच्छंति, सेसा अइन्ति, जइ ताव सागारिओण उठ्ठेइ ताहे आणित्ता तहेव ठवेंति जह आसी, अह उडिओ ताहे साहेतितुब्भे पासुतल्लया अम्हेंहिं न उठ्ठविया, रत्तिं चेव कालगओ साहू, सो तुब्भच्चाए वहणीए नीनिओ, सा किं पठिविज्जउ आनिज्जउ ?, जं सो भणइ तं कीरइ, अह तेहिं अजाणिज्जंतेहिं ठविए पच्छा सागारिएण नायं जहा एएहिं एयाए वहणीए परिद्वविउँ परिट्ठवियन्ति, तत्थ उद्धरुट्ठो अणुनेयव्वो, आयरिया कइयवेण पुच्छंति - केणइ कयं ? अमुएणंति, किं पुण अनापुच्छाए करेसि ?, सो सागारियपुरओ अंबाडेऊण निच्छुब्भइ कइयवेण, जइ सागारिओ भणइ मा निच्छुन्भउ मा पुणो एवं कुज्जा, तो लठ्ठे, अह भणइ-मा अच्छउ पच्छा सो अन्नाए वसहीए ठाइ, बितिज्जिओ से दिज्जउ, माइट्ठाणेण कोइ साहू भाइ-मम एस नियओ जइ निच्छुब्भइ तो अहंपि गच्छामि, अहवा सागारिएणं समं कोइ कलहेइ, सोविनिच्छुब्भइ, सो से बितिज्जओ होइ, जइ बहिया पञ्चवाओ वसही वा नत्थि ताहे सव्वे नेति । नंतकट्ठदारं गयं इदानिं कालेत्ति दारं, सो य दिवसओ कालं करेज्ज राओ वासहसा कालगयंमी मुणिणा सुत्तस्थगहियसारेण । For Private & Personal Use Only Jain Education International - www.jainelibrary.org
SR No.003329
Book TitleAgam Suttani Satikam Part 25 Aavashyaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages356
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size19 MB
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