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________________ २२५ शतकं-१७, वर्ग:-, उद्देशकः-१ वासे सिज्झिहितिजाव अंतं काहिति। भूयानंदे णं भंते ! हत्थिराया कओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता भूयानंदे हत्थिरायत्ताए एवं जहेव उदायी जाव अंतं काहिति॥ वृ. तत्र प्रथमोद्देशकार्थप्रतिपाद- नार्थमाह-'रायगिहे'इत्यादि । 'भूयानंदे'त्ति भूतानन्दाभिदानः कूणिककराजस्य प्रधानहस्ती । अनन्तरं भूतानन्दस्योद्वर्तनादिका क्रियोक्तेति क्रियाऽधिकारादेवेदमाह- मू. (६९६) पुरिसे णं भंते ! तालमारुहइ ता०२ तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए?, गोयमा ! जावंच णं से पुरिसे तालमारुहइ तालमा०२ तालाओ तालफलं पयालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिंपिणंजीवाणं सरीरेहिंतो तले निव्वत्तिए तलफले निव्वत्तिएतेऽविणं जीवा काइयाएजाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। . __अहे णंभंते ! से तालप्फले अप्पणो गरुयत्ताए जाव पञ्चोवयमाणे जाइंतत्थ पाणाइंजाव जीवियाओ ववरोवेति तए णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पढ़े। ___ जेसिंपिणंजीवाणंसरीरेहितोतले निव्वत्तिएतेविणंजीवा काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुट्ठा, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहितो तालप्फले निव्वत्तिए तेविणं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा, जेविय से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति तेऽविय णं जीवा काइयाए जाव पंचहिँ किरियाहिं पुट्ठा।। पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कति किरिए?, गोयमा! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा तावं चणं से पुरिसे काइयाए जावपंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिंपियणं जीवाणंसरीरेहितोमूले निव्वत्तिए जावबीए निव्वत्तिए तेविय णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा। अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेइ तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव ववरोवेइ तावंच णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे, जेसिंपिय णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निव्वत्तिएजाव बीए निव्वत्तिए तेविणंजीवा काइयाए जाव चउहिं पुट्ठा। जैसिंपिय णं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा, जेवियणं से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति तेविणंजीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। पुरिसेणंभंते! रुक्खस्स कंदंपचालेइ०, गो०! तावंचणं से पुरिसेजाव पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिंपिणं जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निव्वत्तीए तेविणं जीवा जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। 3] 15 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003310
Book TitleAgam Suttani Satikam Part 06 Bhagvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages532
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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