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प्राकृत-श्री-स्तुति-चतुर्विशतिका । पढम जिणवर पढम जिणवर जणमणाणंद, सुरनाह-संथुअ चलण भरह-जणय जय पढम-सामिअ, संसारवण-गहणदव-चत्तदोस अपबग्गगामिअ, लोआलोअपयासय पयडिय-धम्माधम्म, सुविहाणुं तुह रिसहजिण निझिअ वुज्झयकम्म ॥१॥ जेण दाणव जेण दाणव सिद्ध गंधव, विज्झाहर किंनरह मिलिअमाण नरनाह विंदह, हरिरुद्द-चउराणणह-सूरचंद-गोविंद-इंदह, सो पसरंतउ देव तई निझिअ-भडकंदप्प, सुविहाणुं बत अजिअजिण जसपवडमाहप्प ॥२॥ जेहिं पुजिजअ जेहिं पुन्जिअ देव तुह पाय, सुपसत्थलक्खण-सहिअ नह-समूह-किरणोहरंजिअ, गुरुकम्म-निभासयर कणयकति सुरराय-- पुज्जिय ते नर पुज्जइ भुंजइ सुरसुहय पुण पावई निव्वाण, संभव भव-निन्नासयर तुह निम्मल सुविहाण ॥३॥ तावदुनूर तावदुनूर देव संसारतां पुग्गइ, गमणभयताव-कोहमयमोह-मत्त-उत्तउपसम, सुहरहिअ जान देव तुह सरणि पत्तउ,
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