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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
यहां 'रध हिंसासंराद्ध्यो:' ( दि०प०) धातु से हेतुमति च' ( ३।१।२६ ) से 'णिच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अजादि णिच्' (इ) प्रत्यय परे होने पर रध्' धातु को 'नुम्' आगम होता है। 'नश्चापदान्तस्य झलि' (८ | ३ |२४) से नकार को अनुस्वार और 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८/४/५८) से अनुस्वार को परसवर्ण नकार होता है । तत्पश्चात् णिजन्त 'रन्धि' धातु से 'लट्' प्रत्यय है। ऐसे ही . जभी गात्रविनामें (भ्वा०आ०) धातु से - जम्भयति ।
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(२) रन्धकः | यहां 'रध्' धातु से 'वुल्तृचौं' (३ । १ । १३३) से अजादि ण्वुल् (अक) प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'जभ्' धातु से - जम्भकः ।
(३) साधुरन्धी। यहां 'साधु' उपपद 'रध्' धातु से 'सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये (३।२।७८) से अजादि णिनि (इन्) प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'जभ्' धातु से- साधुजम्भी ।
(४) रन्धरन्धम् । यहां 'रध्' धातु से 'अभीक्ष्णये णमुल् च' (३/४/२२) से अजादि णमुल् (अम्) प्रत्यय है । वा०- 'आभीक्ष्ण्ये द्वे भवत:' ( ८1१1१२) से आभीक्ष्ण्य- अर्थ में द्वित्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'जभ्' धातु से - जम्भंजम्भम् ।
(५) रन्ध: । यहां 'रध्' धातु से 'भावे' (३ | ३ |१८) से भाव- अर्थ में अजादि घञ् (अ) प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'जभ्' धातु से - जम्भः ।
नुमागम-प्रतिषेधः
(१७) नेट्यलिटि रधेः । ६२ ।
प०वि०-न अव्ययपदम्, इटि ७ । १ अलिटि ७ । १ रधेः ६ । १ । स०-न लिड् इति अलिट्, तस्मिन् - अलिटि ( नञ्तत्पुरुषः ) । अनु०-अङ्गस्य, नुमिति चानुवर्तते ।
अन्वयः-रधेरङ्गस्य अलिटि इटि नुम् न ।
अर्थ:-रधेरङ्गस्य लिड्वर्जिते इडादौ प्रत्यये परतो नुमागमो न
भवति ।
उदा०-रधिता। रधितुम् । रधितव्यम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (रधेः) रधि इस (अङ्गस्य ) अंग को (अलिटि) लिट् से भिन्न (इटि) इडादि प्रत्यय परे होने पर ( नुम् ) नुम् आगम (न) नहीं होता है।
उदा० - रधिता । हिंसा / संसिद्धि करनेवाला । रधितुम् । हिंसा / संसिद्धि करने के लिये । रधितव्यम् । हिंसा / संसिद्धि करनी चाहिए ।
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