________________
७१५
२८.
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उपसर्गः| नि: परत: शब्दरूपम् भाषार्थ: २३. प्र
वाति प्रणिवाति बहता है। २४. परि वाति परिणिवाति २५. प्र
द्राति प्रणिद्राति निन्दित चलता है। द्राति परिणिद्राति प्साति प्रणिप्साति खाता है। प्साति परिणिप्साति वपति प्रणिवपति बोता है/काटता है।
वपति परिणिवपति ३१. प्र
वहति प्रणिवहति ढोता है। ३२. परि वहति परिणिहपति
शाम्यति प्रणिशाम्यति शान्त होता है। शाम्यति परिणिशाम्यति चिनोति प्रणिचिनोति चुनता है। चिनोति परिणिचिनोति
देग्धि प्रणिदेग्धि बढ़ता है। ३८. परि देग्धि परिणिदेग्धि
यहां प्रणिगदति आदि का धातलभ्य अर्थ किया गया है। प्र. परि और नि उपसर्ग के योग में अन्य अर्थ भी सम्भव है-उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रषाभ्याम्) रेफ और षकार से परवर्ती (न:) नि शब्द को (गद०) गद, नद, पत, पद, घु
दा, धा आदि) मा, स्यति, हन्ति, याति, वाति, द्राति, प्साति, वपति, वहति, शाम्यति, चिनोति, देग्धि इन धातुओं के परे होने पर (च) भी (न:) नकार के स्थान में (ण:) णकार आदेश होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) प्रणिगदति । यहां प्र और नि-उपसर्गपूर्वक 'गद व्यक्तायां वाचिं' (भ्वा०प०) धातु से लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तिप्' आदेश है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती नि' के नकार को णकार आदेश होता है। परि-उपसर्ग में-परिणिगदति।
REFERRE
३५. ३६. परि
३७. प्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org