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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-संहितायां विषयेऽवर्णपूर्वयो: पदान्तयोर्वकारयकारयोरुनि पदे च परतो लोपो भवति।
उदा०-स उ एकविंशवर्तनि: (मै०सं० २।७।२०)। स उ एकाग्निः । वकारस्य नास्त्युदाहरणम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अपूर्वयोः) जिनके पूर्व में अवर्ण है उन (पदयो:) पदान्त में विद्यमान (व्यो:) वकार और यकार वर्गों का (उजि) उञ् यह (पदे) पद परे होने पर (च) भी (लोप:) लोप होता है।
उदा०-स उ एकविंशवर्तनि: (मै०सं० २।७।२०) । स उ एकाग्निः । वकार का उदाहरण नहीं है।
सिद्धि-स उ। यहां सः' के 'ह' के रेफ को 'भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि (८।३।१७) से यकारादेश होता है। इस सूत्र से इस यकार का उञ् पद परे होने पर लोप होता है। लोप: शाकल्यस्य' (८।३।१९) से विकल्प से लोप प्राप्त था, इस सूत्र से नित्य यकार का लोप होता है। लोपादेशः
(१०) हलि सर्वेषाम् ।२२। प०वि०-हलि ७१ सर्वेषाम् ६।३ ।
अनु०-पदस्य, संहितायाम्, भोभगोअघोअपूर्वस्य, य:, लोप इति चानुवर्तते।
अन्वयः-संहितायां भोभगोअघोअपूर्वस्य पदस्य यो हलि लोपः, सर्वेषाम्।
अर्थ:-संहितायां विषये भोभगोअघोअपूर्वस्याऽवर्णपूर्वस्य च पदान्तस्य हलि परतो लोपो भवति, सर्वेषामाचार्याणां मतेन। ___उदा०-(भो:) भो हसति, भो याति। (भगो:) भगो हसति, भगो याति। (अघो:) अघो हसति, अघो याति। (अपूर्व:) बाला हसन्ति।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (भो०) भोः, भगोः, अघो और अवर्ण जिसके पूर्व में है उस (पदस्य) पदान्त (य:) यकार का (हलि) हल् वर्ण परे होने पर (लोप:) लोप होता है (सर्वेषाम्) सब आचार्यों के मत में।
____उदा०-(भोः) भो हसति । अरे ! वह हंसता है। भो याति । अरे ! वह जाता है। (भगो:) भगो हसति, भगो याति । (अघो:) अघो हसति, अघो याति । अर्थ पूर्ववत् है। (अवर्णपूर्व:) बाला हसन्ति । बालक हंसते हैं।
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